पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

तृतीय खण्ड श्रीचन्द्र का एक मात्र अन्तरग सखा धन था, क्याकि उसके कोम्बिक जीवन में काई आनन्द नही रह गया था। वह अपन व्यवसाय को लकर मस्त रहता । लाखो का हर-फेर करने म उस उतना ही मुख मिलता, जितना किसी विनामा का विलास म। काम म छुटटा पान पर यकावट मिटान क लिए बातल प्याला और व्यक्तिविशप साथ थोडे समय तक आमाद-प्रमाद कर लना ही उसक लिए पर्याप्त था। चन्दा नाम की एक धनवती रमणी कभी-कभी प्राय उसस मिला करती, परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि थाचन्द्र पूर्ण रूप स उसकी आर आकृष्ट था । यहाँ यह हुआ कि आमाद-प्रमोद की मात्रा बढ चली। कपाम क काम म सहसा घाटे की सम्भावना हुई। श्रीचन्द्र विसी का आश्रय-अक खोजन लगा । चन्दा पास ही थी। धन भी था, और वात यह थी वि चन्दा उस मानती मा थी। उस नामा भी थी कि पजाब-विधवा-विवाह-सभा नियमानुसार वह क्सिी दिन श्रीचन्द्र की गृहिणी हा जायगी। चन्दा का अपनी बदनामी क कारण अपनी लडकी के लिए बडो चिन्ता थी। वह उसकी सामाजिकता बनान के लिए भी प्रयत्नशील थी। परिस्थिति न दाना लाहा + वाच नुम्बक का काम किया। श्रीचन्द्र आर चन्दा म भेद ता पहल भी न था, पर अव सम्पत्ति पर भी दाना का साधारण अधिकार हा चला। वह घाटेक धक्क को सम्मिलित धन स राक्न लगी। बाजार रुका, जैस आंधी यम गइ । तगादे-पुरज को वाढ उतर गई। पानी वरस गया था। धुल हुए अन्तरिक्ष स नक्षत्र अतात-स्मृति क ममान उज्वल हाकर चमक रहय। मुगन्धरा की मधुर गन्ध स मस्तक भर रहन पर भी श्रीचन्द्र अपन बँगले व चौतरे पर स आकाश क तारा का विन्दु मानकर उनस काल्पनिक रखाएं खीच रहा था । रखागणित १ असख्य काल्पनिक त्रिभुज ककास ११७