पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

यक यात्रिया न निद्रा का जवलम्ब लिया। प्रभात म जब श्रीचन्द्र को आँखे खुली, तब उसने दखा, प्रौढा किशोरी क मुख पर पचीस वरस पहल का वही सलज्ज लावण्य अपराधी क मदृश छिपना चाहता है। अतीत की स्मृति ने श्रीचन्द्र क हृदय पर वृश्चिक-दशन का काम किया । नीद न खुलन का बहाना करके उन्हान एक बार फिर आखे बन्द कर ली। किशोरी मर्माहत हुई, पर जाज नियति ने उस सब आर स निरवलम्ब करक श्रीचन्द्र के सामन झुकन क लिय बाध्य किया था। वह सकोच और मनावेदना स गडी जा रही थी। श्रीचन्द्र साहस सकलित करक उठ बैठा । डरते-डरत किशारी न उसक पर पकड लिय । एकात था । वह जी खोलकर रोई, पर श्रीचन्द्र को उस रोन स काध ही हुआ, करुणा की झनक न जाइ ! उसन कहा-किशारी | रान की तो काई आवश्यक्ता नहीं। रोई हुई लान जॉखा का श्रीचन्द्र क मुह पर जमात हुए किशारी ने कहाआवश्यकता तो नहो, पर जानत हा स्त्रिया कितनी दुर्बल है--अवला हैं। नही तो मर ही जैसा अपराध करनवाल पुरुष क परा पर पडकर मुझे न रोना पडता । __वह अपराध यदि तुम्ही से सीखा गया हा, ता मुब उत्तर दन की व्यवस्था न खोजनी पडगी। __तो हम लाग क्या इतनी दूर है कि मिलना सम्भव है ? असम्भव ता नही है, नहीं तो मैं आता कस ? जब स्त्री-मुलभ ईर्ष्या किशोरी क हृदय म जगी। उसन कहा-~-पाय हागे किसी को घुमान-फिरान--मुख-वहार लन । किशोरी क इस कथन म व्यग से अधिक उलाहना था । न जान क्या श्रीचन्द्र का इस व्यग स सन्ताप हुआ, जैस ईप्सित वस्तु मिल गई हो। वह हंसकर बाला-इतना ता तुम भी स्वीकार करागी कि यह कोई अपराध नहीं है। किशारी न दखा, समझौता हो सकता है, अधिक कहा-सुनो करक इस गुरुतर न बना दना चाहिए । उसन दोनता म कहा- तो अपराध क्षमा नही हा सकता? याचन्द्र न कहा-किशोरा । अपराध कसा ? उपराध समझता, ता आज इस बात-चीत का अवसर ही नही जाता। हम लागा का पय जब अलग-अलग निधारित हा चुका है, तब उसम काई वाधक न हा, यही नोति अच्छो रहगी। यात्रा करत तो हम लोग आय ही है, पर एक धाम भी है। ककाल १२३