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___जपने हाथा से आखो को ढंक लिया। कुछ काल क वाद बोला-अच्छा, ता विजय को खोजने जाता हूँ। गाडी पर निरजन का सामान लद गया और विना एक शब्द कह वह स्टेशन चला गया । किशोरी अभिमान और क्रोध से भरी चुपचाप बैठी रही । आज वह अपनी ही दृष्टि म तुच्छ जंचने लगी। उसन बडबडाते हुए कहा-स्नी कुछ नही ह, कवल पुरुषो की पृछ है। विलक्षणता यही है कि यह पंछ कभी-कभी अलग भी रख दी जा सकती है। अभी उस सोचन से अवकाश नही मिला था वि गाडियो क खडबड शब्द, और वक्स-बडला क पटकने का धमाका नीच हुआ। वह मन-ही-मन हँसी कि बाबाजी का हृदय इतना बलवान नही कि मुझे या ही छाडकर चले जायें । इस समय स्त्रिया की विजय उसके सामन नाच उठी । वह फूल रही थी उठी नही, परन्तु जब धनिया ने आकर कहा-बहूजी पजाब स कोई आय है उनके साथ एक लडकी और उनकी स्त्री है—तव वह एक पल भर के लिये सन्नाटे म आ गई । उसने नीचे झांककर दखा तो- श्रीचन्द्र । उसक साथ शलवार, कुरता ओढनी स सजी हुई एक रूपवती रमणी चौदह साल की सुन्दरी कन्या का हाथ पकडे खडी थी। नौकर लोग सामान भीतर रख रहे थे। वह किंकर्तव्य-विमूढ होकर नीचे होकर उतर आई । न जाने कहाँ की लज्जा और द्विविधा उसक अग का घेरकर हँस रही थी। ___थीचन्द्र ने इस प्रसग को अधिक बढान का अवसर न दकर कहा-यह मरे पडासी, अमृतसर क व्यापारी लाला की विधवा है काशीयात्रा क लिए आई है। ओहो मर भाग 1-~कहती हुई किशारी उनका हाथ पकडकर भीतर ले चली । श्रीचन्द्र एक वडी-सी घटना को या ही संवरते दखकर मन ही-मन प्रसन्न इए । गाडीवाल को भाडा देकर घर में आये । सब नौकरा म यह बात गुनगुना गई कि मालिक आ गये है। अलग कोठरी मे नवागत रमणी का सव प्रबन्ध ठीक किया गया। श्रीचन्द्र ने नीच की बैठक म अपना आसन जमाया। नहान धोन, खान-पीन और विश्राम म समस्त दिन बीत गया । किशोरी ने अतिथि-सत्कार म पूरे मनायाग स भाग लिया। कोई भी दखकर यह नहीं कह सकता था कि किशारी और श्रीचन्द्र बहुत दिनो पर मिले है परन्तु अब तक श्रीचन्द्र ने विजय को नही पूछा, उसका मन नहीं करता था, या साहस नही होता था। १२२ प्रसाद वाड्मय