पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१५५

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निरजन वृन्दावन म विजय की खाज म धूमन लगा । तार दकर अपन हरिद्वार के भण्डारी का रुपये लेकर बुलाया और गली गली खाज की धूम मच गई। मथुरा म द्वारिकाधीश के मन्दिर म कई दिन टाह लगाया। विथामघाट पर आरती दखत हुए क्तिनी सध्याएं विताई पर विजय का कुछ पता नही । IIT दिन वृन्दावन वाली मडक पर वह भण्डारी के साथ टहल रहा था। अपस्मात् एक तोगा तेजी से निकल गया। निरजन का पका हुई, पर वह जब तक देख, तब तक तो तांगा लाप हा गया। हा गनावी माडी की झलक आखा म छा गई। टूमरे दिन वह नाव पर दुर्वासा के दर्शन का गया । वैशाख पूर्णिमा थी। यमुना से हटन का मन नही करता था। निरजन ने नाव वान में कहा-विमी अच्छी जगह ल चनो । मैं आज रात भर घूमना चाहता है तुमका भरपूर इनाम दूगा, चिन्ता न करता भला । उन दिना कृष्णशरण वाली टेकरो प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी। मनचल नाग वदन उपर धूमन जान थ। मांझी न दखा विभी थाडी दर पहले ही नार उधर जा चुका थी वह भी उधर मेने लगा। निरजन को अपने ऊपर क्राध हो रहा था, सोचन लगा-"पाय थे हरिभजन का आग्न लग पाम ।' पूर्णिमा को पिछली रात था। गत-भर या जगा हुमा चन्द्रमा झीम रहा था । निरजन की आख भी कम जनमाई थी, परन्तु जाज नीद उचट गई थी। मैक्डा कविताआ म वर्णित यमुना का पुतिन, यावन-वाल की स्मृति जगा दन लिए कम न था । विशारी का प्रोड प्रणय-लीला और अपनी साधु की स्थिति, निरजन के मामन दो प्रतिद्वद्विया का भांति लडकर उन अभिभूत बना रही थी। मांझी भी ऊँघ रहा था। उसक डाँड बहुत धारे-धीरे पानी म गिर रह थे । यमुना के जन म निस्नन्ध शालियो। निरजन एक स्वप्नदोष म विधर रहा था। चांदनी फीकी हा चली। अभी तर आगे जान वानी नाव पर म मधुर काल १२५