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सगीत की स्वर-लहरी मादकता मे कम्पित हो रही थी। निरंजन ने कहामांझी, उधर ही ले चलो। नाव की गति तीन हुई। थोड़ी ही देर में आगे वाली नाव के पाम हो से निरंजन की नाव बढ़ी। उसमे एक गत्रि-जागरण में क्लान्त युवती गा रही थी और बीच-बीच में पास ही बैठा हुआ युवक वशी बजाकर साथ देता, तब वह जैम ऊंघती हुई प्रकृति-जागरण के आनन्द मे पुलकित हो जाती । महसा सगीत की गति रुकी। युवक ने उच्छ्वास लेकर कहाघण्टी ! जो कहते है अविवाहित जीवन पाशव है, उच्छृङ्खल है, वे भ्रात है। हृदय का सम्मिलन ही तो व्याह है। मैं सर्वस्व तुम्हे अर्पण करता हूँ और तुम मुझे; इसमे किसी मध्यस्य की आवश्यकता क्यो-मत्रो का महत्त्व कितना | झगडे की, विनिमय की, यदि सभावना रही तो ममर्पण ही कैसा । मै म्वतन्य प्रेम की मत्ता स्वीकार करता हूँ, समाज न करे तो क्या । निरजन ने धीरे से अपने मांझो से नांव दूर ले चलने के लिये कहा। इतने में फिर युवक ने कहा--तुम भी इसे मानती होगी। जिसको सब कहते हुए छिपाते हैं, जिसे अपराध कहकर कान पकडकर स्वीकार करते है, वही तोजीवन का, यौवन-काल का ठोस मत्य है। सामाजिक बन्धनो से जकडी हुई आर्थिक कठिनाइयां, हम लोगो के भ्रम से धर्म का चेहरा लगाकर अपना भयानक रूप दिखाती हैं ! क्यो, क्या तुम इसे नही मानती ? मानती हो अवश्य, तुम्हारे व्यवहारो से यह बात स्पष्ट है। फिर भी सस्कार और रूढि की राक्षसी प्रतिमा के मामने समाज क्यो अल्हड रक्तो को वलि चढाया करता है। __घटी चुप थी। वह नशे में झूम रही थी। जागरण का भी कम प्रभाव न था । युवक फिर कहने लगा-देखो, मैं समाज के शासन में आना चाहता था, परन्तु आह । मैं भूल करता हूँ। ____तुम झूठ बोलते हो विजय ! ममाज तुमको आज्ञा दे चुका था, परन्तु तुमने उसकी आज्ञा ठुकराकर यमुना का शासनादेश स्वीकार किया। इसमे समाज का क्या दोष है । मैं उस दिन की घटना नहीं भूल सकती, वह तुम्हारा दोष है। तुम कहोगे कि फिर मैं जब जानकर भी तुम्हारे साथ क्यो घूमती हूँ; इसलिए कि मैं इसे कुछ महत्त्व नहीं देती। हिन्दू स्त्रियों का समाज ही कैसा है, उसमें कुछ अधिकार हो तब तो उसके लिये कुछ सोचना-विचारना चाहिए। और, जहाँ अन्ध-अनुसरण करने का आदेश है, वहाँ प्राकृतिक, स्त्री-जनोचित प्यार कर लेने का जो हमारा नैसर्गिक अधिकार है--जैसा कि घटनावश प्राय स्त्रियां किया करती है—उसे चयो छोड दूं ! यह कैसे हो, क्या हो, और क्यो हो-~-इसका विचार पुरुष करते हैं । वे करे, उन्हें विश्वास बनाना है, कौडी-पाई लेना रहता १२६ : प्रसाद वाङ्मय