पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१६

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से भारतीय समाज को मुक्त करना चाहते हैं। जैसे "छोटे-छोटे ब्रह्मचारी दण्ड, कमण्डल ओर पीत वसन धारण किये समस्वर से गाते जा रहे थे कस्यचित्किमपिनोहरणीय मर्मवाक्यमऽपिनोच्चरणीय धीपतेः पदयुगस्मरणीय लीलया भवजल तरणोय उन सबो के आगे दाढी और घने बालो एक युवक चद्दर धोती पहने जा रहा था । गृहस्थ लोग उन ब्रह्मचारियो को झोली म कुछ डाल देते थे। विजय ने एक दृष्टि से देखकर मुंह फिराकर यमुना से कहा-देखा यह बीसवो शताब्दी मे तीन हजार बी० सी० का अभिनय ! समग्न ससार अपनी स्थिति रखने के लिए चचल है, रोटी का प्रश्न सबके सामने है, फिर भी मूर्ख हिन्दू अपनी पुरानी असभ्यताओ का प्रदर्शन कराकर पुण्य-सचय किया चाहत है ! आप तो पापपुण्य कुछ मानते ही नही विजय बावू पाप और कुछ नहीं है यमुना जिन्हे हम छिपाकर किया चाहते हैं, उन्ही कर्मों को पाप कह सकते हैं परन्तु समाज का एक बडा भाग उसे यदि व्यवहार्य बना दे, तो वही कर्म हो जाता है, धर्म हो जाता है । देखती नही हो, इतने विरुद्ध मत रखने वाले ससार के मनुष्य अपनेअपने विचारों में धार्मिक बने है । जो एक के यहाँ पाप है वही तो दूसरो के यहाँ पुण्य है।" (ककाल, पृ० ७२)। पाप और पुण्य का यह विश्लेषण मूल सामन्ती धारणा पर ही आघात है । विजय और निरजनदेव का विकसित रूप ही क्या बीजगुप्त और कुमार गिरि नहीं है ? विद्रोही विजय और यमुना मे शेखर और शशि की छबियां हैं। विजय का यमुना के प्रति प्रेम और विवाह का प्रस्ताव तथा यमुना का पुरुष प्रधान समाज मात्र से विरक्ति के हात हुए भी विजय के प्रति अव्यक्त स्नेह जो बाद म भाई बहन, के सही रिश्ते म बदल कर नियतिवादो हो जाता है शेखर और शशि में दूसरे रूप मे मिलता है। इसे नये सम्बन्धो की शुरुआत की पहचान मानने से भी ककाल का यह 'नये' महत्त्वपूर्ण हो उठता है। मृणाल मे कही घण्टी तो नही है ? हिन्दी के तीनो प्रतिष्ठित और निश्चय ही कई दृष्टियो से महत्त्वपूर्ण इन उपन्यासो का सम्बन्ध 'ककाल' से मैं जानबूझ कर नही जोडना चाहता और न मैं ककाल को इनसे श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहता हूँ। मेरा कुल उद्देश्य इतना ही है कि प्रेमचन्द के प्रचार और प्रतिष्ठा के दवाव मे ककाल म अकुरित सवेदना के उस स्वरूप को हमे नही भूलना चाहिए जो परवर्ती हिन्दी उपन्यासो में विकसित हुयो है । ककाल भारतीय समाज की सडाध और वदवू पर पड़ी हुई राख को खुरच देता है। लेकिन उपन्यास का यह उद्घाटन बन्दर वृत्ति वाला उद्पाटन नही है कि इसे अति ययार्थवादी कह दिया जाय । यह उद्घाटन २० : प्रसाद वाङ्मय