पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१७

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लोकमगल की भावना से युक्त है - इसलिए कि वह फोडे को पुरचकर उसमे मलहम पट्टी करना चाहता है। उपन्यास का उद्देश्य वेश्या जीवन और रखैलो का वर्णन करना नहीं है बल्कि धर्म के नाम पर होने वाले शोपण और स्त्रिया के प्रति अमानवीय व्यवहार को उद्घाटित करना और ऐसी आध्यात्मिकता का प्रचार करना है जिससे किसी प्रकार की रूढ़ि और साम्प्रदायिकता न पनप सके। क्यावस्तु के स्वरूप और 'लक्ष्य' के आधार पर हिन्दी के उपन्यासो का वर्गीकरण करत हुए रामचन्द्र शुक्ल 'ककाल' और 'तितली' को 'समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों को परस्पर स्पिति और उनके संस्कार चित्रित करने वाले वर्ग म रया है । शुक्ल जी का यह विभाजन गलत नहीं है परन्तु अपूर्ण अवश्य है। ककाल वर्गों के हिसाब स स्थितियो का चित्रण नहीं करता है कि क्योकि वर्गीय मनोवृत्ति के स्वरूप प्रेमचन्द और प्रसाद मे भिन है। तिवली म वर्गीय चरित्रा का चित्रण है परतु ककाल मे तो मूल समस्या ही दूसरी है । ककाल उस युग का एकमात्र ऐसा वोल्ड उपन्यास है जो धार्मिक आडम्बर का न केवल पर्दाफाश करता है बल्कि उसे सामाजिक सडन का प्रमुख कारण मानता है। शुक्ल जी मे पाश्चात्य सस्कृति और समाज के प्रति पाये जाने वाला चौकन्नेपन का भाव जयशकर प्रसाद और प्रेमचन्द दोनो मे पाया जाता है, जो प्रकारान्तर से उभरते हुए वर्ग को ओर सकेत हो नहीं करता है बल्कि आने वाले भविष्य का संकेतक भी है। शुक्ल जी भी प्रसाद जी की भांति उपन्यास को एक प्रकार से सामाजिक दुराइया को रोकन वाला और संशोधन करने वाला मानते हैं । वस्तुत प्रसाद जी ककाल में समस्यामूलक और प्रश्न-चिन्हात्मक मुद्रा अपनाते हैं और तितली में सुधारात्मक और सात्वनावादी । सुधार और सात्वना के ही तर्क से उनके उपन्यासो मे प्राचीन उपन्यासो को उपदेशात्मक भी मिलती है । यद्यपि यह उपदेशात्मकता कलात्मक सयोजन से उपन्यास की समग्रता का हिस्सा लगती है अलग से लगाई गई कलम नही । कारण यह है कि प्रसाद का जोवन और जगत के बारे में एक दृष्टिकोण था और उसको वे परवर्ती काल म रचनाओ मे एक जीवन दर्शन के रूप मे अभिव्यक्त भी करते हैं ककाल, तितली, कामायनी और इरावती इस आनन्दवादी जीवन दर्शन की क्रमश प्रौढ से प्रौढ़तर होती हुयी कृतियां है । भौतिक जडता और धार्मिक या मठी निरकुशता से मुक्ति उनकी रचनाओ का विषय है। यथार्थ और यूटोपिया को एक साथ रचनाओ प्रस्तुत करना और दोनो के प्रति शका भी प्रसाद म मिलती है। ककाल मे जो आन्तरिक और वाह्य विसंगति बोध है वह आगामी उपन्यासो का ही प्राक्कथन . २१