पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१६०

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पत्र पाकर किशोरी गूव रोई। श्रीचन्द्र अपनी सारी कल्पनाओ पर पानी फिरत देखकर किशोरी की ही चापनूसी करन लगा। उसको वह पजाववाली चन्दा अपनी लड़की को लकर चला गई क्याकि व्याह होना असभव था। बीतने वाला दिन वातो को भुना देता है। एक दिन विशारी न रहाजो कुछ है हम लोगा लिए बहुत अधिव हे हाय-हाय कर के क्या होगा। मैं भी अब व्यवसाय करने पजाव न जाऊंगा। किशोरी । हम दानो यदि सरलता से निभा सब तो भविष्य जीवन हम तोगा का मुखमय होगा इसम कोई सदह नही। किशोरी न हंसवर सिर हिना दिया। ससार अपने-अपन मुख की कल्पना पर खड़ा है--यह भीषण ससार अपनी स्वप्न की मधुरिमा से स्वर्ग है। आज किशोरी को विजय की अपेक्षा नही, निरजन की भी नही । और श्रीचन्द्र को रुपया के व्यवसाय और चन्दा की नहीं। दोनों ने देखा इन सबके रिना हमारा काम चल सकता है मुख मिल सकता है। फिर अझट करक क्या होगा । दोना का पुनर्मिलन प्रोढ आशाओ से पूर्ण था। श्रीचन्द्र ने गृहस्थी सभाली । मव प्रबध ठीक करक दोना विदेश घूमने के लिए निकल पडे । ठाकुरजी की मवा का भार एक मूर्ष क ऊपर था जिस केवल दो रुपय मिलते थे-वे भी महीने भर म । जाहा | स्वार्थ स्तिना सुन्दर है। १३२ प्रसाद वाङ्मय