पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१६२

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हुए कहा-चलो बेटी । ममीह-जननी को छाया म, तुमन समझ लिया होगा कि उसके बिना तुम्ह शान्ति न मिलेगी। बिना एक शब्द कहे पादरी क साथ वाथम और घण्टो दोना उठकर चल । जात हुए वाथम न एक बार उस बंगले को निराश दृष्टि से देखा । धीरे धीरे तीनो चले गये। ___ आरामकुर्सी पर पड़ी हुई लतिका न एक दिन जिज्ञासा भरी दृष्टि स सरना की आर देखा, तो वह निर्भीक रमणी अपनी दृढता म महिमापूर्ण थी । लतिका का धैय लौट आया। उसन कहा-अब ? कुछ चिन्ता नही बेटी, मै हूँ । सव वस्तु वचकर बैंक म रुपय जमा कर दा, नुपचाप भगवान् के भरोस रूखी-मूखी खाकर दिन वीत जायगा। --सरला न कहा। मैं एक बार उस वृन्दावन वान गोस्वामा क पास चलना चाहती हूँ, तुम्हारा क्या सम्मति है ? --लतिका ने पूछा। पहत यह प्रबन्ध कर लना हागा, फिर वहाँ भी चलूगी। चाय पिआगी? आज दिन भर तुमने कुछ नही खाया मै ल जाऊँचाला? हम लोगा का जीवन क नवीन अध्याय के लिए प्रस्तुत हाना चाहिए । लतिका । सदेव प्रस्तुत रहा का महामत्र मेरे जीवन का रहस्य है-~-दुख क लिए, मुख क लिए जीवन क लिए और मरण के लिए | उसमे शिथिलता न आनी चाहिए । विपत्तियों वायु की तरह निकल जाती है मुख के दिन प्रकाश के सदृश पश्चिमी समुद्र म भागते रहत है। समय काटना होगा बिताना होगा और यह ध्रुव-सत्य है कि दोनो का अन्त है। लतिका के मुख पर स्पूर्ति की रखा फूट उठी। कई महीन वीत गय । लतिका और बाथम का सम्बन्ध विच्छेद हा गया था। बाथम अब पादरी के बगल में रहता था और घण्टी भी वही रहती । बाथम किसी काम में लग जाने के लिए जी-ताड परिश्रम कर रहा था। वह अपनी जीविका स्थिर करन के लिए प्रयत्नशील था। और, पादरी घण्टी का बपतिस्मा दकर जीवन का कर्तव्य पूरा कर लन की प्रसन्नता स कुछ सीधा हो गया, अब वह उतना झुककर नहीं चलता। परन्तु घण्टी । -आज अँधेरा हो जान पर भी, गिरजा क समीप वाल नाल के पुल पर बैठी, अपनी उधेड-धुन में लगी है । अपन हिसाब किताब म लगी है-- १३४ प्रसाद वाडमय