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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१७४

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नही थी, केवल इसीलिए सहसा उन्होन कहा-~-अच्छा सुनूं ता तुम लोगो का गाना । तुम्हारा नाम क्या है जी? ___ रहमत खाँ, सरकार |--कहकर वह अपनी सारगी मिलाने लगा। शवनम बिना किसी से कुछ पूछे, आकर कम्वल पर बैठ गई । सामदेव झुंझला उठा, पर कुछ बोला नहीं। शवनम गाने लगीपसे मर्ग मेरो मजार पर जो दिया किसी ने जला दिया। उसे जाह ! वामने बाद ने सरेशाम हो से बुझा दिया ! इसके आगे जैस शबनम को भूल गया था । वह इसी पद्य को कई वार गाती रही । उसके सगीत म कला न थी, करुणा थी। पीछे ने रहमत उसके भूले हुए अश का स्मरण दिलाने के लिए गुनगुना रहा था, पर शबनम के हृदय का रिक्त अश मूर्तिमान होकर जैस उसकी स्मरण-शक्ति के सामने अड जाता था । झुंझलाकर रहमत ने सारगी रख दी । विस्मय स शबनम न पिता की ओर देखा, उसकी भोली-भोली आँखो ने पूछा----क्या कुछ भूल हो गई । चतुर रहमत उस बात को पी गया । मिरजा जैस स्वप्न से चौके, उन्होने देखा-सचमुच सन्ध्या से ही बुझा हुआ स्नह विहीन दीपक सामने पडा है। मन म आया, उसे भर दूं। कहारहमत, तुम्हारी जीविका का अवलम्व तो वडा दुर्वल है। सरकार, पेट नही भरता दो वीघा जमीन से क्या होता है। मिरजा ने कौतुक से कहा--तो तुम लोगो को कोई मुखी रखना चाहे, तो रह सकते हो? रहमत के लिए जैसे छप्पर फाडकर किसी ने आनन्द वरसा दिया । वह भविष्य की सुखमयी कल्पनाओ से पागल हो उठा—क्या नही सरकार । आप गुनियो की परख रखते है । सोमदेव ने धीरे से कहा–वेश्या है सरकार । मिरजा ने कहा-दरिद्र है। सोमदेव ने विरक्त होकर सिर झुका लिया । कई बरस बीत गये। शबनम मिरजा के महल मे रहने लगी थी। सुन्दरी । सुन्दरी । ओ बंदरी | यहाँ तो आ | १४६ प्रसाद याङ्मय