पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१७५

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आई |--कहती हुई एक चचल छोकरी हाथ बाँधे सामने आकर खडी हो गई। उसकी भवें हंस रही थी । वह अपने होठो को बड़े दवाव से रोक रही थी। देखो तो आज इसे क्या हो गया है । बोलती ही नहीं, मन मारे बैठी है । नही मलका | चारा-पानी रख देती हूँ। मैं तो इससे डरती हूँ। और कुछ नही करती। फिर इसका क्या हो गया है, वतला नही तो सिर के बाल नाच डालूंगी। मुन्दरी को विश्वास था कि मलका कदापि एसा नही कर सकती । वह ताली पोटकर हंसने लगी और बोली–मैं समझ गई ! उत्कण्ठा से मलका ने कहा-तो वताती क्या नहीं ? जाऊँ सरकार को बुला लाऊं, वे ही इसके मरम को वात जानते है । मच कह, वे कभी इसे दुलार करते है, पुचकारते हैं ? मुझे तो विश्वास नहीं होता। हाँ। तो मैं ही चलती हूँ, तू इस उठा ले । सुन्दरी ने महीन सोने के तारा से बना हुआ पिंजरा उठा लिया, और शबनम आरक्त कपोला पर का थम-सीकर पाती हुई, उसके पीछे-पीछे चली। ____ उपवन की कुज गली परिमल से मस्त हो गई। फूलो ने मकरन्द-पान करने के लिए अधरा-सी पखडिया खोली । मधुप लडखडाय । मलयानिल सूचना देने के लिए आगे-आगे दौडन लगा। नोभ । सो भी धन का । आह । क्तिना सुन्दर सर्प भीतर फुफकार रहा है। कोहनूर का मीसफूल गजमुक्ताओ की एकापली विना अधूरा है, क्यो ? वह तो कगाल थी। वह मेरी कौन है? ___कोई नही सरकार । -कहते हुए मामदेव न विचार म बाधा उपस्थित कर दी। हाँ, सामदव मे भूल कर रहा था। बहुत-स लाग वदान्त की व्याख्या करते हुए ऊपर स देवता बन जाते हैं और भीतर उसके वह नोच-खसोट चला करता है । जिसको सोमा नही । ___वही तो सोमदेव । कगाल को साने म नहला दिया, पर उसका कोई तत्काल फ्ल न हुआ-मैं समझता हूँ वह सुखी न हो सकी। ____सोने की परिभाषा कदाचित् सबके लिए भिन-भिन्न हा । कवि कहते हैंसवरे की किरणे सुनहली हैं, राजनीति-विशारद-मुन्दर राज्य को, मुनहला कराल १४७