पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१८५

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सीकरी की वस्ती से कुछ हटकर एक ऊंचे टीले पर फूस का वडा-सा छप्पर पडा है और नीचे कई चटाइयां पड़ी हैं। एक चौकी पर मगलदेव लेटा हुआ, सवेरे को-छप्पर के नीचे आती हुई-शीतकाल की प्यारी धूप से अपनी पीठ म गर्मी पहुंचा रहा है। आठ-दस मैले-कुचैले लडके भी उसी टीले के नीचे-ऊपर हैं । कोई मिट्टी वरावर कर रहा है, कोई अपनी पुस्तको को वेठन में बांध रहा है। कोई इधर-उधर नये पौधो में पानी दे रहा है । मगलदेव ने यहां भी पाठशाला खोल रखी है । कुछ थोडे से जाट-गूजरो के लडके यहां पढ़ने आते हैं । मगल ने बहुत चेष्टा करके उन्हे स्नान करना सिखाया, परन्तु कपडो के अभाव ने उनकी मलिनता रख छाडी है । कभी-कभी उनके क्रोधपूर्ण झगडो मे मगल का मन ऊब जाता है। वे अत्यन्त कठोर और तीव्र स्वभाव के हैं। जिस उत्साह से वृन्दावन की पाठशाला चलती थी, वह यहां नहीं है । बढे परिश्रम से उजाड देहातो मे धूमकर उसन इत्तन लडके एकत्र किये हैं। मगल आज गम्भीर चिन्ता मे निमग्न है । वह सोच रहा था-क्या मरो नियति इतनी कठोर है कि मुझे कभी चैन न लेन देगी। एक निश्छल परोपकारी हृदय लेकर मैंन ससार म प्रवेश किया और चला था भलाई करन । पाठशाला का मुन्दर जीवन छाडकर मैंने एक भोली भाली बालिका के उद्धार करन का सम्ल्प किया, यही सत्सकल्प मेर जावन की चक्करदार पगडण्डिया म घूमता-फिरता मुझे कहाँ ने आया | कलक, पश्चाताप और प्रवञ्चनाओ की कमी नहीं । उस अवला की भलाई करने के लिए जब-जब मैंने पैर बढाया, धक्के खाकर पीछे हटा और उस भी ठोकरें लगाई । यह किसकी अज्ञात प्ररणा है ? मर दुर्भाग्य की ? मेर मन में धर्म का दम्भ था । बहा उग्र प्रतिफल मिला । आयसमाज प्रति जा मरी प्रतिदूल सम्मति थी, उसी न सब कराया। हां, मानना पडेगा, धर्म-सम्बन्धी उपासना क नियम उसक चाहे जैसे हा-परन्तु सामाजिक परिवर्तन उसके माननाय हैं । यदि मैं पहल ही समझता ! वाह ! स्तिनी भूल हुई । मरी मानसिर दुर्वलता ने मुष यह चक्कर खिलाया। ककाल १५७