पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१८६

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मिथ्या-धर्म का सचय और प्रायश्चित्त, पश्चात्ताप, और आत्म-प्रतारणाक्यो ? शान्ति तो नहीं मिली । मैंने साहस किया होता, तारा को न छोड देता, तो क्या समाज और धर्म मुझे इससे भी भीषण दण्ड देता? कायर मगल | तुझे लज्जा नही आती? -सोचते-सोचते वह उठ खडा हुआ और धीरे-धीरे टीले से उतरा। __शून्य पथ पर निरुद्देश चलने लगा। चिन्ता जब अधिक हो जाती है, तब उसकी शाखा-प्रशाखाएं इतनी निकलती हैं कि मस्तिष्क उनके साथ दौडने में थक जाता है। किसी विशेष चिन्ता को वास्तविक गुरुता लुप्त होकर विचार को यान्त्रिक और चेतना-विहीन बना देती है । तव पैरो से चलने मे, मस्तिष्क से विचार करने म, कोई विशेष भिन्नता नही रह जाती । मगलदेव की वही अवस्था थी । वह बिना सकल्प के ही वाजार पहुँच गया, तक खरीदन-बेचने वालो की बातचीत उसे केवल भनाहट-सी सुनाई पडती। वह कुछ समझने में असमर्थ था। सहसा किसी ने उसका हाथ पकड कर खीच लिया। उसने क्रोध से उस खोचनेवाले की ओर देखा- लहंगा कुरता और ओढनी में एक गूजरी युवती । दूसरी ओर से एक बैल बडी निश्चिन्तता से सीप हिलाता, दौडता निकल गया । मगल ने अब उस युवती को धन्यवाद देने के लिए मुंह खोला, पर तब तक वह चार हाथ आगे निकल गई थी। विचारा मे बौखलाये हुए मगल ने अब पहचानायह तो गाला है । वह कई बार उसके झोपडे तक जा चुका था । मगल के हृदय मे एक नवीन स्फूर्ति हुई, वह डग बढाकर गाला के पास पहुँच गया और घबराये हुए शब्दो मे उमे धन्यवाद द ही डाला । गाला भौचक्की-सी उसे देखकर हंस पड़ी। अप्रतिभ हाकर मंगल ने कहा--अरे यह तुम हो गाला । उसने कहा-हा, आज सनीचर है न । हम लोग बाजार करने आये है। अब मगल न उसके पिता बदन को देखा । मुख पर स्वाभाविक हँसो ले आन की चेष्टा करते हुए मगल न पहा-आज वडा अच्छा दिन है कि आपका यही दर्शन हा गया। नीरसता से वदन ने कहा-क्या, अच्छे तो हो? आप लोगा की कृपा से---कहकर मगल ने सिर झुका लिया। बदन बढता चला जाता था और वाते भी करता जाता था। वह एक जगह विसाती की दुकान पर खड़ा होकर गाला की आवश्यक वस्तुएं लेने गया । मगल ने अवसर देखकर कहा--आज तो अचानक भेट हो गई है, समीप ही मेरा आश्रम १५८: प्रसाद वाङ्मय