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न होगा ता सब लोग उस दया सहानुभूति और प्रेम के उद्गम से अपरिचित हो जायंगे जिससे आपका व्यवहार टिकाऊ होगा । प्रकृति मे विषमता तो स्पष्ट है। नियत्रण के द्वारा उसमे व्यावहारिक समता का विकास न होगा। भारतीय आत्मवाद की मानसिक समता हो उसे स्थायी बना सकेगी। यान्त्रिक सभ्यता पुरानी होते हो ढीली होकर बेकार हो जायगो । उसमे प्राण बनाये रखने के लिए व्यावहारिक समता के ढांचे या शरीर मे, भारतीय आत्मिक साम्य को आवश्यकता कब मानव समाज समझ लेगा, यही विचारने की बात है। मैं मानता हूँ कि पश्चिम एक शरीर वैयार कर रहा है किन्तु उसमे प्राण देना पूर्व के अध्यात्मवादिमे का काम है । यही पूर्व और पश्चिम का वास्तविक सगम होगा, जिससे मानवता का स्रोत प्रसनधार मे बहा करेगा।" उस दिन की आशा मे हम लोग निश्चेष्ट बैठे रहे। नही मानवता की कल्याण कामना मे लगना चाहिए। (तितली, पृ० १०४) । "सच्चा वेदान्त व्यावहारिक है । वह जीवन-समुद्र आत्मा को उसकी सम्पूर्ण विभूतियो के साथ समझता है । भारतीय आत्मवाद के मूल में व्यक्तिवाद है, किन्तु उसका रहस्य है समाजवाद को रूढ़ियो से व्यक्ति की स्वतन्त्र की रक्षा करना और व्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है व्यक्ति समता की प्रतिष्ठा, जिसमे समझौता अनिवार्य है।" (तितली, पृ०७४)। ___ "पिछले दिनो में मैंने पुरुषोत्तम को प्रारम्भिक जीवनी सुनाई थी, आज सुनाऊँगा उनका सदेश । उनका सदश था-आत्मा की स्वतत्रता का, साम्य का, कर्मयोग का, और बुद्धिवाद का । आज हम धर्म के जिस ढांचे को शव को घेरकर रो रहे हैं, वह उनका धर्म नही था । धर्म को दे बडी दूर की पवित्र पा डरने की वस्तु नही बतलाते थे। उन्होंने स्वर्ग का लालच छोडकर रुढियों के धर्म को पाप कहकर घोषणा की। उन्होने जीवन्मुक्ति होने का प्रचार किया। सबकी आत्मा स्वतत्र हो, इसलिए समाज की व्यावहारिक बातो को वे शरीर कर्म कहकर व्याख्या करते थे-क्या यह पथ सरल नही, क्या हमारे वर्तमान दुखों में वह अवलम्बन न होगा? सब प्राणियो से निर्वैर रखनेवाला शाति पूर्ण शक्ति सवलित मानवता का ऋजु पय, क्या हम लोगो के चलने योग्य नही है ? समवेत जनमण्डली ने कहा--है, अवश्य है। हो, और उसमे कोई आडम्बर नही । उपासना के लिए एकान्त निश्चित अवस्था, और स्वाध्याय के लिए चुने हुए श्रुतियों के सारभाग का संग्रह, गुण कर्मों से विशेषता और पूर्ण आत्मनिष्ठा, सबको साधारण समता इतनी ही तो प्राक्कथन २३