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एक बार पगली ने नन्दो चाची की ओर देखा और नन्दो में पगली की ओर ----रक्त का आकर्षण तीव्र हुआ, दोनो गले से मिलकर रोने लगी। यह घटना दूर पर हो रही थी। किशोरी और श्रीचन्द्र का उससे कुछ सम्बन्ध न था। अकस्मात् अन्धा रामदेव उठा और चिल्लाकर कहने लगा-पतितपावन की जय हो । भगवान् मुझे शरण में ला ---जब तक उसे सब लोग देखे, तव तक वह सरयू की प्रखर धारा मे वहता हुआ-फिर डूबता हुआ, दिखाई पड़ा । घाट पर हलचल मच गई। किशोरी कुछ व्यस्त हो गई। श्रीचन्द्र भी इस आकस्मिक घटना से चकित-सा हो रहा था। अब यह एक प्रकार मे निश्चित हो गया कि श्रीचन्द्र, मोहन को पालेगे, और वे उसे दत्तक रूप मे भी ग्रहण कर सकते है। चाची को सतोप हो गया __ था, वह मोहन के धनी होने की कल्पना से सुखी हो सकी । उसका और भी एक कारण था-पगली का मिल जाना । वह आकस्मिक मिलन उन लोगो के लिए अत्यन्त हर्ष का विषय था। किन्तु पगली अव तक पहचानी न जा सकी थी, क्योकि वह बीमारी को अवस्था में बरावर चाची के घर पर ही रही। श्रीचन्द्र स चाची को उसकी सेवा के लिए रुपये मिलते । वह धीरे-धीरे स्वस्थ हो चली, परन्तु वह किशारी के पास न जाती। किशोरी को केवल इतना मालूम था कि नन्दो को पगली लडकी मिल गई है। एक दिन यह निश्चय हुआ कि अव सव लोग काशी चले, पर पगली अभी जान के लिए सहमत न थी। मोहन श्रीचन्द्र के यहां रहता था। पगली भी किशोरी का सामना करना नहीं चाहती थी; पर उपाय क्या था | उस उन लोगा के साथ जाना ही पडा। उसके पास केवल एक अस्त्र बचा था, वह था चूंघट | वह उसी की आड मे काशी आई। किशोरी के सामने भी हायो बूंघट निकाले रहती । किशोरी नन्दो के चिढने के डर से उससे कुछ न बोलती । मोहन को दत्तक लेने का समय समीप था, वह तब तक चाची को चिढाना भी न चाहती, यद्यपि पगली का बूंघट उसे बहुत खलता था। किशोरी को विजय की स्मृति प्राय. चौका देती है । एकान्त मे वह रोती रहती है। उसकी वही तो सारी कमाई, जीवन भर के पाप-पुण्य का सञ्चित धन विजय । आह, माता का हृदय रोने लगता। काशी आने पर एक दिन पण्डितजी के कुछ मन्ना ने प्रकट रूप से श्रीचन्द्र को मोहन का पिता बना दिया ! नन्दो चाची को अपनी बेटी मिल चुकी थी, १७०: प्रसाद वाङ्मय