पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२०३

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वह मारा गया । कहा जाता है कि न्याय के लिए न्यायालय सदैव प्रस्तुत रहता है, परन्तु अपराध हो जाने पर ही विचार करना उसका काम है । उस न्याय का अर्थ है कि किसी को दण्ड दे देना | किन्तु उसके नियम उस आपत्ति से नही वचा सकते । सरकारी वकील कहते हैं—न्याय को अपने हाथ में लेकर तुम दूसरा अन्याय नही कर सकते, परन्तु उस एक क्षण की कल्पना कीजिए कि उसका सर्वस्व लुटा चाहता है और न्याय के रक्षक अपन आराम मे है । वहाँ एक पत्थर का टुकडा ही आपत्ति-ग्रस्त को रक्षा कर सकता है। तब वह क्या करे, उसका भी उपयोग न करे । यदि आपके मुव्यवस्थित शासन में कुछ दूसरा नियम है तो आप प्रसनता से मुझे फासी दे सकते हैं। मुझे और कुछ नही कहना है । वह निर्भीक युवती इतना कहकर चुप हो गई । न्यायाधीश दाता-तले ओठ दवाये चुप थे । साक्षी बुलाथ गये है, पुलिस ने दूसरे दिन उन्हे ले आन की प्रतिज्ञा की है । गाला । मैं तुमसे भी कहता कि चलो, इस विचित्र अभियोग को देखो, परन्तु यहाँ पाठशाला भी ता दखनी है । अवकी वार मुझे कई दिन लगगे। ____ आश्चर्य है, परन्तु मैं कहती हूँ कि वह स्त्री अवश्य उस युवक से प्रेम करती है, जिसने हत्या की है । जैसा तुमने कहा, उसस तो यही मालूम होता है कि वही दूसरा युवक उसका प्रेम-पात्र है, जिसने उसे सताना चाहा था । ____ गाला । पर मैं कहता हूँ कि वह उससे घृणा करती थी। ऐसा क्यो । मैं न कह सकूगा, पर है बात कुछ ऐसी ही । सहसा रुककर मगल चुपचाप सोचने लगा-हो सकता है । ओह | अवश्य विजय और यमुना ।—यही तो, मानता हूँ कि हृदय म एक आधी रहती है, एक हलचल लहराया करती है, जिसके प्रत्येक धक्के म- बढो ! वढो | -को घोषणा रहती है। वह पागलपन ससार को तुच्छ लघुकण समझकर उसकी ओर उपेक्षा से हंसने का उत्साह दता है । ससार का वर्तव्य, धर्म का शासन, केले के पत्ते की तरह धज्जी-धज्जी उड जाता है। यही ता प्रणय है । नीति की सत्ता ढाग मालूम पडती है और विश्वास होता हे कि समस्त सदाचार उसी की साधना है हाँ वही सिद्धि है, वही सत्य है । आह, अबाध मगल । तूने उस पाकर भी न पाया। नही-नहो, वह पतन था, अवश्य माया थी । अन्यथा, विजय की आर इतनी प्राण द देने वाली सहानुभूति क्या ? आह, पुरुष-जीवन के कठोर सत्य । क्या इस जीवन म नारी को प्रणय मदिरा के रूप म गलकर तू कभी न मिलेगा परन्तु स्त्री, जल-सदृश कोमल एव अधिकसे-अधिक निरीह है । बाधा दन की सामर्थ्य नही, तब भी उसम एक धारा है, एक गति है, पत्थर की रुकावट की भी उपेक्षा कर के कतराकर वह चली ही जाती है। अपनी सन्धि खोज ही लेती है, और सब उसक लिए पथ छोड दते है, ककात १७५