पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२०८

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रहने से फिर भीड लग जायगी । आइए, मरे पीछे-पीछे चली आइए | -मगल ने आज्ञापूर्ण स्वर मे ये शब्द कहे। दानो उसके पीछे-पीछे आँसू पोछती हुई चली। मगल का गम्भीर दृष्टि से देखते हुए गोस्वामीजी न पूछ-तो तुम क्या चाहते हो? गुरुदेव ! आपकी आज्ञा का पालन करना चाहता हूँ, मेवा-धम की जो दीक्षा आपने मुझे दी है, उसका प्रकाश्य रूप से व्यवहृत करने की मेरी इच्छा है। देखिए, धर्म के नाम पर हिन्दू स्त्रियो, शूद्रा, अछूतो-नही, वही प्राचीन शब्दो म कहे जाने वाली पापयानिया की क्या दुर्दशा हो रही है । क्या इन्ही के लिए भगवान् श्रीकृष्ण न परागति पाने की व्यवस्था नही दी है ? क्या वे मब उनकी दया से वचित ही रह । ___मैं आयसमाज का विरोध करता था-मेरी धारणा थी कि धार्मिक समाज में कुछ भीतरी सुधार कर देने से काम चल जायगा, किन्तु गुरुदव । यह आपका शिष्य मगल आप ही की शिक्षा से आज यह कहने का साहस करता है कि परिधर्तन आवश्यक है, एक दिन मैने अपन मित्र विजय का इन्ही विचारो के लिए विरोध किया था पर नही, अब मरी यही दृढ धारणा हो गई है कि इस जर्जर धार्मिक समाज मे जो पवित्र है- अलग पवित्र वन रहे, मैं उन पतितो की सेवा करूं, जिन्हे ठोकर लग रही हैं-~-जो बिलबिला रहे है। ___ मुझे पतितपावन के पदाक का अनुसरण करने की आज्ञा दीजिए । गुरुदव, भुझसे बढकर कौन पतित हागा ? कोई नही, आज मरी आख खुल गई हैं मैं अपने समाज को एकत्र करूंगा और गोपाल स तव प्रार्थना करूंगा कि भगवान तुमम यदि पावन करने की शक्ति हा, तो आओ। अहकारी समाज के दम्भ स पद दलितो पर अपनी करुणा-कादम्बिनी बरसाओ । मगल की आखो में उत्तेजना के आँसू थे। उसका गला भर आया था। वह । फिर कहने लगा-गुरुदेव । उन स्त्रिया की दशा पर विचार कीजिए, जिन्हे कल ही आश्रम मे आश्रय मिला है। मगल | क्या तुमने भली भाँति विचार कर लिया, और विधार करने पर भा तुमन यही काय-क्रम निश्चित किया है? -गम्भीरता से कृष्णशरण ने पूछा। गुरुदव । जब कार्य करना ही है तब उस उचित रूप क्या न दिया जाय । दवनिरजनजी से परामर्श करने पर मैंन ता यही निष्कर्ष निकाला है कि भारतसघ स्थापित होना चाहिए। १८० प्रसाद वाड्मय