पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२०९

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परन्तु तुम मेरा सहयोग उसम न प्राप्त कर सकोगे। मुझे इस आडम्बर मे विश्वास नहीं है, यह मै स्पष्ट कह देना चाहता हूं। मुझे फिर काइ एकान्त कुटिया खोजनी पडेगी-मुस्करात हुए कृष्णशरण ने कहा। ___ काय आरम्भ हो जाने दीजिए । गुरुदेव । तव यदि आप उसम अपना निर्वाह न दख, ता दूसरा विचार करे। इस कल्याण-धर्म के प्रचार म क्या आप ही विरोधी बनियेगा । मुझे जिस दिन आपने सवाधर्म का उपदश देकर वृन्दावन से निर्वासित किया था, उसी दिन स मैं इसके लिए उपाय खोज रहा था, किन्तु आज जब सुयोग उपस्थित हुआ, देवनिरजनजी जैसा सहयोगी मिल गया, तब आप ही मुझे पीछे हटने का कह रहे है। पूर्ण गम्भीर हँसी के साथ गोस्वामीजी कहने लगे-~-जव निवासन का बदला लिये विना तुम कैसे मानोगे ? मगल, अच्छी बात है, मैं शीघ्र प्रतिफल का स्वागत करता हूँ। किन्तु, मैं एक बात फिर कह देना चाहता हूँ कि मुझे व्यक्तिगत पवित्रता के उद्योग म विश्वास है, मैन उसी का सामने रखकर उन्ह प्रेरित किया था । मैं यह न स्वीकार करूँगा कि वह भी मुझे न करना चाहिए था । किन्तु, जो कर चुका, वह लौटाया नहीं जा सकता। तो फिर करो, जो तुम लोगो की इच्छा । मगल ने कहा---गुरुदव, क्षमा कीजिए---आशीर्वाद दीजिए । अधिक न रहकर वह चुप हो गया । वह इस समय किसी भी तरह गास्वामी जी के भारत सघ का आरम्भ करा लिया चाहता था। निरजन न जब वह समाचार सुना, तो उस अपनी विजय पर प्रसन्नता हुई --दोनो उत्साह से आगे का कार्यक्रम बनान लगे । ककाल १८१