पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२१

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शुक्ल जी मे इडा श्रद्धा को लिवा जाती है और कामायनो मे इडा और मनु दोनो श्रद्धा को खोजते हैं। इरावतो के इस उद्धरण से प्रसाद के 'रहस्यवाद' निबन्ध के सिद्धान्त निरूपण का तात्पर्य न केवल स्पष्ट हो जायगा बल्कि पृथ्वी या ससार के प्रति उनके यथार्थवादी आग्रह का भी सकेत मिल जायगा "अतिक्रमण करके आपका विवेक संसार स आपको अलग अपनो और सकुचित भूमिका मे खड़ा कर देगा । जहाँ केवल विराग ही नहीं, अपितु आसपास के फैले हुए ससार से घृणा भो नाक सिकोडने लगेगो। उस विवेक को भी हम वया कहे, जो हमको संसार से विच्छिन्न करके, वैराग्य और अपनी पवित्रता के अभिमान में, हमे अद्भुत परिस्थिति मे डाल दे। हमारा विश्व से सामजस्य होना असम्भव कर दे। शकाओ से, निषेधों से हमे जकडकर काल्पनिक उच्च आदर्शों के लिए वामन की तरह उचकते रहने को हास्य जनक स्थिति में सदैव डाल रक्खे ।" (इरावती, पृ० १८) । प्रसाद जो के इस उपन्यास का लक्ष्योभूत पाठक मध्यवर्ग हो है । बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि मध्यवर्ग के लिए ही पूरा छायावाद का साहित्य मध्य वर्ग द्वारा हो लिखा गया । फलत उभरते हुए मध्यवर्ग की आशा आकाक्षा, प्रतिध्वनि, मनोव्यथा, पिंजरबद्धता और नवीनता, अनुकरण तथा मुक्ति की आकाक्षा पायी जाती है। परन्तु इरावती के पहले के उपन्यासो में विशेषकर ककाल के पात्र भी 'ककाल' यानी सर्वहारा है। सर्वहारा का यह अर्थ भारत की तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था मे एक विशेष प्रकार का अर्थ रखता है जो सर्वहारा क श्रम प्रक्रिया के अर्थ से भिन्न है परन्तु महत्त्वपूर्ण अवश्य है । तितली का समाज भिन्न समाज है वह भारतीय समाज के उच्च और मध्यवर्ग का ही समाज नहीं है बल्कि आर्थिक दृष्टि से विपन्न परन्तु वर्ण संस्कारो से युक्त लोगो का समाज है । प्राय सभी पात्र शिक्षित और सामाजिक दृष्टि से सजग पात्र है । निम्नवर्ग के पात्रा का जो प्रयोग है भी वह पात्र के रूप में नहीं बल्कि प्रसगीत है । 'प्रतिध्वनि' और आधी मे निम्न पात्र भी मिलते हैं। परन्तु इतना निश्चित है कि इन कहानियो के अधिकाश पात्र विवश, विपन्न, आश्रित परन्तु तेजस्वी और स्वाभिमानी हैं । और यह जिस प्रकार के सम्बन्धो के द्वारा जगत को उद्घाटित करते हैं वह उपन्यास का स्थायी तत्व बनता है। वस्तुत उपन्यास के रचना विधान की दृष्टि से इन तीनो उपन्यासों में कोई विशेष अन्तर नही है। प्रसाद जो का सरचनात्मक आधार सादृश्य और वैपरीत्य है। नाटको और उपन्यासा मे इसी मूल आधार पर शुभ और अशुभ को आदर्शवादी धारणा का प्रयोग करते हुए वस्तु सगठन किया गया है । इस तर्क से ककाल थोडा भिन्न है। प्राक्कथन २५