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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२१३

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कई ग्नि हा गये थे। मगल नहीं था। अक्ल गाला का उस पाठशाला का प्रबध कर रही थी। उसका नवीन उत्साह उस नित्य वल द रहा था पर उम कभा-कभी ऐसा प्रतात हाता कि उसन वाई वस्तु खो दी है। इधर एव पन्तिजी भी उस पाठशाला म पढान लग थे। उनका गाँव दूर था त गाला ने कहापण्डितजी आप भी यहां रहा कर ता अधिक गुविधा हो । रात को छात्रा के कप्ट इत्यादि का समुचित प्रवध मी पर पिया जाता और मूनापन उतना न बखरता । पण्डितजी सात्विक बुद्धि के एर अधड व्यक्ति थे। उन्होने स्वीकार कर लिया । एक दिन वे बैठ हुए गमायण की कथा गाना का मुना रहे थे गाला ध्यान स मुन रही थी। राम वनवास का प्रसग था। रात अधिक हा गइ थी पण्डितजी न कया चट कर दी। मव छाना न फूस का चटाई पर पर फैलाय और पण्डितजी ने भी वम्बल साधा किया। आज गाला की यात्रा म नाद न था। वह चुपचाप नेश पवन विकम्पित लता की तरह कभा-कभी विचार म झीम जाती फिर चौक कर अपनी विचार परम्परा की विशुद्धत नडिया का सम्हालन नगती। उसक सामन आज रह रह कर बदन का चित्र प्रस्फुटित हा उठता । यह साचती--पिता की आज्ञा मानकर राम वनवासा हुए और मैंन पिता को क्या सवा की ? उलटा उनक वृद्ध जीवन म कठोर आघात पहुचाया | और यह मगल ? किस माया म पडी हूँ । बालक पढत हैं मैं पुण्य कर रही हू कर्तव्य कर रही है परन्तु क्या यह ठीक है ? मैं एक दुन्ति दस्यु और यवनी पी वानिका-हिन्दू समाज मुझे किस दृष्टि से दखगाओह मझ इसको क्या चिन्ता । समाज स मेरा क्या सम्बध । फिर भी मुये चिन्ता करनी ही पड़गी क्या? इसका काइ स्पष्ट उत्तर नही दे मकती पर यह मगल भी एक विलक्षण आहा वचारा कितना परापकारी है तिस पर उसका खाज करन वाला काई नही । न खान को मुध न अपन शरीर की । सुख क्या है-वह जैसे भूत गया है । और मैं भी कैसी ह–पिताजी का कितनी पीडा मैंने दी वे मसा सत हागे । मैं जानती हूँ लाहे म भी कठार मेरे पिता अपन दुख म भी किसा फकाल १६५