पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२२६

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आलाप-प्रार्थिना यमुना, अपने कुटीर म दीपक बुझाकर बैठी रही। उस आशा थी कि वातायन और द्वारा स राशि-राशि प्रभात का धवल आनन्द उसक प्रकाष्ठ म भर जायगा, पर जव समय आया, किरने फूटी, तब उसने अपन वातायनो, भराखो और द्वारो का रुख कर दिया । आँख मी बन्द कर ली। आलोक कहाँ स आय । वह चुपचाप पड़ी थी। उसके जीवन की अनन्त रजना उसके चारो आर घिरी थी। लतिका न जाकर द्वार खटखटाया। उद्धार की जाशा में आज सघ-भर में उत्साह था। यमुना हेंसन की चेष्टा करती हुई बाहर आई । लतिका ने कहा--- चलागी बहन यमुना । स्नान करन ? चलूंगी बहन, धोती ले लूं ।। दानो आश्रम के बाहर हुई। चलते-चलत लतिका न कहा-बहिन सरला का दिन भगवान न जैसे लौटाया, वसा सव का लौटे । अहा, पचीसा बरस पर किमका लडका लोटकर गाद म आता है। सरला के धैर्य का फल है वहन । परन्तु सवका दिन लोटे, एसी ता भगवान् की रचना नही देखी जाती। बहुतो का दिन कभी न लोटन के लिए चला जाता है । विशेषकर स्त्रिया का । भरी रानो। जब मै स्त्रिया के ऊपर दया दिखान का उत्साह पुरुपा मे देखती हूँ, ता जैस क्ट जाती हूँ। एसा जान पडता है कि वह सब कालाहल, स्त्री-जाति की लज्जा की मघमाला ह । उनकी असहाय परिस्थिति का व्यग-उपहास है। यमुना ने कहा । लतिका ने आश्चर्य से आप बडी करते हुए कहा-सच कहती हा बहन । जहा स्वतन्त्रता नहीं है, वहाँ पराधीनता का आन्दोलन है, और जहाँ ये सब मान हुए नियम हैं, वहाँ कौन-सी अच्छी दशा है । यह झूठ है कि किसी विशप समाज म स्निया का कुछ विशेष सुविधा है । हाय, हाय, पुरुष यह नहीं जानते कि स्नेहमयी रमणी मुविधा नही चाहती, वह हृदय चाहती है, पर मन इतना भिन उपकरणो से बना हुआ है कि समझौते पर ही ससार के स्त्री-पुरुषों का व्यवहार १६८ प्रसाद दाइ मय