पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२२५

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'वही त्रिकोण यत्र' वह चिल्ला उठी-मेर खाय हुए निधि | मेरे लाल | यह दिन देखना किस पुण्य का फल है मरे भगवान् । मगल ता आश्चर्य चकित या। सव साहस बटारकर उसन कहा–ता क्या मचमुच तुम्ही मरी मा हो । तीनो के आनन्दाथु बाध तोडकर बहने लग । सरला न गाला के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- वेटो । तरे भाग्य स आज मुझ मरा खोया हुआ धन मिल गया । गाला गडी जा रही था। मगल एक जानन्दमय कुतूहल स पुलकित हा उठा । उसने सरला के पर पकडकर कहा-मुझ तुमन छाड क्यो दिया था माँ ? उसको भावनाआ की सीमा न थी। कभी वह जीवन-भर के हिसाब का बरावर हुआ समझता, कभी उस भान होता कि आज से ससार म मेरा जीवन प्रारम्भ हुआ है। सरला ने कहा-मैं कितनी भाशा म थी, यह तुम क्या जानागे । तुमने ता अपनी माता के जीवित रहन की कल्पना भी न की होगी। पर भगवान् को दया पर मरा विश्वास था और उसन मेरी लाज रख लो। उस हप से लतिका वचित न रही । उसन भी बहुत दिनो बाद अपनी हंसी का लौटाया। भण्डार म बैठी हुई नन्दो न भी इस सम्वाद को सुना, वह चुपचाप रही। घटी भी स्तब्ध होकर अपनी माता के साथ उसक काम में हाथ बँटाने लगी। ककाल १६७