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सम्मान पर कुछ कहेगे। मगलदेव ने कहना आरम्भ किया ससार में जितनी हलचल है, आन्दोलन हैं, वे सब मानवता की पुकार है। जननी अपने झगडालू कुटुम्ब में मेल कराने के लिए बुला रही है। उसके लिए हमे प्रस्तुत होना है । हम अलग न खडे रहेगे । यह समारोह उसी का समारम्भ है। इसलिए, हमारे आन्दोलन व्यवच्छेदक न हो। एक बार फिर स्मरण करना चाहिए कि लोग एक है, ठीक उसी प्रकार जैसे श्रीकृष्ण ने कहा---'अविभक्त च भूतेषु विभक्तमिव च स्थित'-यह विभक्त होना कर्म के लिए है, चक्रप्रवर्तन को नियमित रखने के लिए है । समाज-सेवा-यज्ञ को प्रगतिशील करने के लिए है । जीवन व्यर्थ न करने के लिए, पाप की आयु, स्वार्थ का बोझ न उठाने के लिए हमे समाज के रचनात्मक कार्य मे, भीतरी सुधार लाना चाहिए । यह ठीक है कि सुधार का काम प्रतिकूल स्थिति में प्रारम्भ होता है । मुधार सौन्दर्य का साधन है। सभ्यता सौन्दर्य की जिज्ञासा है। शारीरिक और आलकारिक सौन्दर्य प्राथमिक है, चरम सौन्दर्य मानसिक सुधार का है। मानसिक सुधारों में सामूहिक भाव कार्य करते हैं। इसके लिए श्रम-विभाग है । हम अपने कर्तव्य को देखते हुए समाज की उन्नति करे; परन्तु सधर्ष को बचाते हुए । हम उन्नति करते-करते भौतिक ऐश्वर्य के टीले न बन जाये । हाँ, हमारी उन्नति-फल-फूल वाले वृदो को-सी हो, जिनमे छाया मिले, विश्राम मिले, शान्ति मिले । ___मैंने पहले कहा है कि समाज-सुधार भी हो और सघर्प से बचना भी चाहिए। वहुत-से लोगों का यह विचार है कि, मुधार और उन्नति में संघर्ष अनिवार्य है; परन्तु सघर्ष से बचने का एक उपाय है, वह है-आत्म-निरीक्षण । समाज के कामो में अतिवाद से बचाने के लिए यह उपयोगी हो सकता है। जहाँ समाज का शामन कठोरता से चलता है, वहाँ द्वेष और द्वन्द्र भी चलता है। शासन को उपयोगिता हम भूल जाते है, फिर शासन केवल शासन के लिए चलता रहता है। कहना नही होगा कि वर्तमान हिन्दूजाति और उसको उपजातियां इसके उदाहरण हैं । सामाजिक कठोर दण्डो से वह छिन्न-भिन्न हो रही है, जर्जर हो रही हैं । समाज के प्रमुख लोगों को इस भूल को सुधारना पडेगा। व्यवस्थापक तन्त्रों की जननी, प्राचीन पचायत, नवीन समस्याएं महानुभूति के बदले द्वेप फैला रही है । उनसे कठोर दण्ड मे प्रतिहिंसा का भाव जगता है। हम लोग भूल जाते हैं कि मानव-स्वभाव दुर्बलताओ से सठित है। दुर्बलता कहां से आती है ? लोकापवाद से भयभीत हाकर स्वभाव को __२०४ प्रसाद वाङ्मय