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कंकाल मे सभी स्त्रियाँ पुरुष को सत्तात्मकता पर आघात करती हैं वैसे ही जैसे की ध्वस्वामिनी । वस्तुतः ध्रुवस्वामिनी और कंकाल में एक प्रकार का साम्य है। धर्म और राज्य, समाज और पुरुष सत्तात्मकता पर लगाये गये प्रश्न चिह्न दोनो मे समान है। यमुना और घंटी का यह कथन ध्रुवस्वामिनी के कपन से मिलता है अतर केवल इतना है कि ध्रुवस्वामिनी और तितली इस समाज से संघर्ष करके अपने प्राप्य प्राप्त कर लेती हैं और अंततः विद्रोह को नहीं सतुलन को बनाये रखती हैं। "यमुना ने कहा-~कोई समाज और धर्म स्त्रियो का नही बहन ! सब पुरुषो के हैं। सब हृदय को कुचलने वाले क्रूर हैं। फिर भी मैं समझती हूँ कि स्त्रियो का एक धर्म है वह है आघात सहने की क्षमता ।" (ककाल, २६४)। ____घण्टी ने कहा-मैं भी! बहन स्त्रियो को स्वयं घर पर जाकर अपनी दुखिया बहनो को सेवा करनी चाहिए। पुरुष उन्हे उतनी ही शिक्षा और ज्ञान देना चाहते हैं, जितना उनके स्वार्थ मे बाधक नही । घरो के भीतर अधकार है, धर्म के नाम पर ढोग की पूजा है और शोल तथा आपार के नाम पर रूदियो को । बहनें अत्याचार के परदे मे छिपाई गई हैं।" (ककाल, पृ० २०१)। स्त्रियो को उनकी आर्थिक पराधीनता के कारण जब हम स्नेह करने के लिए बाध्य करते, तब उनके मन मे विद्रोह को सृष्टि भी स्वाभाविक है आज प्रत्येक कुटुम्ब उनके इस स्नेह और विद्रोह के द्वन्द्व से जर्जर है और असगठित है। हमारा सम्मिलित कुटुम्ब उनकी इस बार्षिक पराधीनता की अनिवार्य असफलता है । उन्हें चिरकाल से वचित एक कुटुम्ब के आर्थिक सगठन को ध्वस्त करने के लिए दिन-रात चुनोती मिलती रहती है । जिस कुल से वे आती है उस पर से ममता हटती नहीं, यहाँ भी अधिकार को कोई सभावना न देखकर, ये सदा घूमने वाली अपराधी जाति को तरह प्रत्येक कौटुम्बिक शासन को अव्यवस्थित करने में लग जाती हैं। यह किसका अपराध है ? प्राचीन-काल मेस्त्री धन की कल्पना हुई थी । किन्तु आज उसकी जैसी दुर्दशा है, जितने कांड उसके लिए खडे होत हैं, वे किसी से छिपे नही।" (तितली, पृ० ११५)। "ध्रुवस्वामिनी-कुछ नही, मैं केवल यह कहना चाहती है कि पुरुषो ने स्त्रिया को अपनी पशु सम्पत्ति समझकर उन पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है, वह मेरे साप नही चल सकता । यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुम को मर्यादा, नारी का गौरव, नही बचा सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते। हाँ तुम लोगो को आपत्ति से बचाने के लिए मैं स्वयं यहां से चली जाऊंगी।" (घवस्वामिनी प्रसाद वाड.मय पृ० ७५६) । २८ प्रसाद वाङमय