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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२४०

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१० वरसात के प्रारम्भिक दिन थे । अभी सन्ध्या होने म विलम्ब था । दशाश्वमेध घाट वाली चुगी-चौकी से सटा हुआ जो पीपल का वृक्ष है, उसके नीचे कितने ही मनुष्य कहलानेवाले प्राणियों का ठिकाना है । पुण्य-स्नान करने वाली बुढ़िया की बांस की डाली म से निकलकर चार-चार चावल सबा के फटे अचल मे पड जाते है, उनस क्तिना के विकृत अग की पुष्टि होती है। काशी में बड़ेबडे अनाथालय, बडे-बड अन्नसत्र है, और उनके सचालक स्वर्ग मे जाने वाली आकाश कुमुमा की सोही की कल्पना छाती फुला कर करते हैं, पर इन्हे ता झुकी हुई कमर, झुरिया से भरे हाया वाली रामनामी ओढे हुए, अन्नपूर्णा की प्रतिमाएं ही दो दाने दे देती हैं । ___दा मोटी ईटो पर खपड़ा रख कर उन्ही दानो को भूनती हुई, कूडो की ईंधन से क्तिनी क्षुधा-ज्वालाएं निवृत्त होती हैं—यह एक दर्शनीय दृश्य है ! सामन नाई अपने टाट विछाकर वाल बनाने म लगे हैं, वे पीपल की जड स टिके हुए देवता के परम भक्त हैं, स्नान करके अपनी कमाई के फ्ल-फूल उन्ही पर चढाते हैं । वे नग्न-भग्न देवता, भूखे-प्यास जावित दवता, क्या पूजा के अधिकारी नहीं ? उन्ही म फटे कम्बल पर ईंट का तकिया लगाये, विजय भी पडा है । अव उसके पहचान जाने को तनिक भी सम्भावना नही । छाती तक हड्डिया का ढांचा और पिंडलियो पर सूजन की चिकनाई, बाला के धनेपन म बडी बडी आँखे और उन्हे बांधे हुए एक चीथडा इन सबो न मिलकर विजय को-~-'नय को-छिपा लिया था । वह ऊपर लटकती हुई पीपल की पत्तिया का हिलना दख रहा था । वह चुप था । दूसरे, अपने सायकाल के भोजन के लिए व्यग्र थे। ___ अँधेरा हो चला, रात्रि आई,~-क्तिनो के विभव-विकास पर चाँदनी तानने और कितनो के अन्धकार म जपनी व्यग की हंसी छिडकन | विजय निश्चेष्ट था । उसका भालू उसके पास घूमकर जाया, उसने दुलार किया। विजय के मुंह पर हंसी आई, उसने धीर से हाथ उठाकर उसके सिर पर रक्खा, पूछा- भालू ! २१२ प्रसाद वाङ्मय