पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अनवरी यह कहते हुए शैला की ओर गहरी दृष्टि से देखने लगी । वह उसकी बगल मे आ गई थी। सीधा व्यग्य न खुल जाय, इसलिए उसने और भी कहा हम मुसलमानो को तो मालिक की मर्जी पर अपने को छाड देना पडता है फिर मुखदुख की अलग-अलग परख करने की किसको पडी है। शैला ने जैसे चौंककर कहा--तो क्या स्त्रियाँ अपने लिए कुछ भी नही कर सकती ? उन्हे अपने लिए सोचने का अधिकार भी नहीं है। बहुत करोगी मिस शैला, तो यही कि किसी को अपने काम का बना लागी। जैसा सब जगह हम लोगो को जाति किया करती है। पर उसमे दुख होगा कि मुख, इसका निपटारा तो वही मालिक कर सकता है। शैला न जाने कितनी बात सोचती हुई चुप हो गई। वह केवल इस व्यग्य पर विचार करती हुई चलने लगी । उत्तर देने के लिए उसका मन बेचैन था, पर अनवरी को उत्तर देने में उस वहुत-सी बाते कहनी पडेंगी। वह क्या सब कहने लायक हैं ? और यह प्रश्न भी उसके मन मे आने लगा कि अनवरी कुछ अभिप्राय रखकर तो बात नहीं कर रही है । उसको भारतीय वायुमडल का पूरा ज्ञान नही था। उसने देखा था केवल इन्द्रदेव का, जिसमे श्रद्धा और स्नेह का ही आभास मिला था। सन्देह का विकृत चित्र उसके सामने उपस्थित करके अपने मन म अनवरी क्या साच रही है, यही धीरे धीरे विचारती हुई वह छावनी की ओर लौटने लगी। ____ अनवरी ने सौहार्द बढाने के लिए कुछ दूसरा प्रसग छेडना चाहा, किन्तु वह मोजन्य के अनुरोध से सक्षिप्त उत्तर मात्र देती हुई छावनी पर पहुंची। अभी इद्रदेव का दरबार लगा हुआ था । आरामकुर्सी पर लेटे हुए वह कोई कागज देख रहे थे । एक बडी-सी दरी विछी थी। उस पर कुछ किसान बैठे थे। इन लोगा के जाते ही दा कुर्सियां और आ गईं। पर इन्द्रदेव न अपने तहसीलदार से कहा-इस पोखरी का झगडा बिना पहले का कागज देखे समझ म नही आवेगा । इसे दूसरे दिन के लिए रखिए। तहसीलदार इन्द्रदेव के बाप के साथ काम कर चुका था। वह इन्द्रदेव से काम लेना चाहता था। उसने कहा--लेकिन दो-एक कागज तो आज ही दख लीजिए उनकी वेदखली जल्दी होनी चाहिए। अच्छा, मैं चाय पीकर अभी आता हूँ। -कहकर इन्द्रदेव शैला और अनवरी के साथ कमरे म चले गये । बुड्ढे से अब न रहा गया । उसने कहा, तहसीलदार साहब, मैं कल से यहाँ बैठा हूँ । मुझे क्यो तग किया जा रहा है । तितसो २४३