पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२७५

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श्यामदुलारी जाज न जान कितनी बाते साचकर बैठी थी-लडका ही तो है, उसे दो बात खरी-खोटी सुनाकर डाट डपटकर न रखने से काम नही चलेगा -----पर विलायत हो आया है । वारिस्टरी पास कर चुका है । कही जवाब दे बैठा तो । अच्छा आज वह मम की छोकरी भी साथ आवगी। इस निर्लज्जता का कोई ठिकाना हे । कहीं ऐसा न हो कि साहव को वह कोई निकल आवे | तब उसे कुछ कहना तो ठीक न होगा। अभी दो महीने पहले कलेक्टर साहब जव मिलन आये थे, तो उन्हान कहा था—'रानी साहब, आपके ताल्लुके में नमूने क गाव बसाने का बन्दावस्त किया जायगा। इसम बडी-बडी खतियाँ, किसानों के बक और सहकार की संस्थाएं खुलेगी। सरकार भी मदद दंगो।' तब उसको कुछ कहना ठीक न होगा । माधुरी की क्या राय है । वह तो कहती है-'मा, जाने दो, भाई साहब को कुछ मत कहो ? ता क्या वह अपने मन से बिगडता चला जायगा । सो नहीं हो सकता। अच्छा, जान दो। माधुरी के मन म अनवरी की वात रह-रहकर मरोर उठती थी। इन्द्रदव क्या यह घर सम्हाल सकेंगे ? यदि नही, तो मैं क्यो बनाने की चेष्टा करूं । उसके मन मे तेरह बरस के कृष्णमोहन का ध्यान आ गया । थियासाफिकल स्कूल मे वह पढता है । पिता वावू श्यामलाल उसकी ओर से निश्चिन्त थे । हाँ, उसके भविष्य की चिन्ता तो उसकी माता माधुरी को ही थी। तव भी वह जैस जपने को धोखे में डालने के लिए कह बैठती-जैसा जिसके भाग्य म होगा, वही होकर रहेगा। ____अनवरी इस कुटुम्ब की मानसिक हलचल म दत्तचित्त होकर उसका अध्ययन कर रही थी। न जान क्या, तीना चुप हाकर मन-ही-मन सोच रही थी। पलंग पर श्यामदुलारी मोटी-सी तकिया के सहारे बैठी थी। चौकी पर चांदनी बिछी थी। माधुरी और अनवरी वही बैठी हुई एक-दूसरे का मुंह दख रही थी। तीनचार कुर्सिया पडी थी। छाटी कोठी का यह वाहरी कमरा था। तितलो २४७