पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२९१

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तहसीलदार साहब न कहा कि इस वनजरिया के नम्बर पर पहले देवनन्द का नाम था, सो ठीक है । मैने ही उसी सम्बन्ध में रेहन करके फिर इसी माप को देवनन्दन के नाम बेच दिया । अब मेरे मन में गाव से घोर घृणा हो गर थी। मैं भ्रमण के लिए निकला । गाव पर मेर लिए कोई वन्धन नही रह गया तीर्थो, नगरो और पहाडा मे मै घूमता था और गली, चौमुहानी, कुओ प तालाबो और घाटो के किनारे, मैं व्याख्यान दने लगा। मेरा विषय था हिन्जाति का उद्बोधन । मैं प्राय उनकी धनलिप्सा, गृह-प्रेम और छोटे-से-छोटे हि गृहस्थ की राजमनोवृत्ति की निन्दा किया करता । आप देखते नहीं कि हिन्दू छोटी-सी गृहस्थी मे कूडा-करकट तक जुटा रखने की चाल है, और उन पर प्रा से बढकर मोह । दस-पाच गहन, दो-चार बर्तन, उनको बोसो बार बन्धक कर और घर में कलह करना, यही हिन्दू-घरो में आये दिन के दृश्य हैं । जीवन : जैसे कोई लक्ष्य नही | पद-दलित रहते-रहते उनकी सामूहिक चेतना जैसे न हो गयी है । अन्य जाति के लोग मिट्टी या चीनी के बरतन मे उत्तम स्निग्न भोज करते है। हिन्दू चाँदी की थाली मे भी सत्तू घोलकर पीता है । मरी कटुता उन जित हो जाती, तो और भी इसी तरह की बात वकता । कभी तो पैसे मिल और कही-कही धक्क भी । पर मेरे लिए दूसरा काम नही । इसी धुन म मै कित बरसो तक घूमता रहा । नर्मदा के तट से घूमकर मैं उज्जैन जा रहा था । अकस्म बिना किसी स्टेशन के गाडी खडी हो गयी । मैने पूछा- क्या है? साथ के यात्री लोग भी चकित थे। इतने म रेल के गार्ड ने कहा-भुखमरी की भीड रलवे लाइन पर खडी है मै गाडी स उतरकर वह भीषण दृश्य देखने लगा। ससार का नग्न चित्र, जिसमे पीडा का, दुख का, ताडव नृत्य था। वि वस्त्र के सैकडो नर-ककाल, इजिन के सामने लाइन पर खडे-खडे और गिरे हु मृत्यु पी आशा मे टक लगाये थे । मैं रा उठा । मेरे हृदय मे अभाव की भीषणत जो चिनगारी के रूप में थी, अब ज्वाला-सी धधकने लगी। ___चतुर गार्ड ने झोली में चन्दा के पैसे एकत्र करके कंगला म बॉट दिया अ वे समीप के वाजार की ओर दौड पडे । हा, दोडे । उन अभागो को अन्न आशा ने बल दिया। वे गिरत-पड़ते चले । मै भी चला। उनके पीछे-पीछे। देखता जाता था कि पेडो म पत्तियां नही बची हैं । टिड्डियाँ भी इस तरह उ नही खा सकती, वे तो नस छोड दती हैं । मैंने देखा कि वे मरभुधे बाजार मे घुस, किन्तु मैं नहीं जा सका । बाज तितली २०