पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३२

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ऐसी भव्य मूर्ति इस मले भर म दूसरी नही है। जैके साक्षात् भगवान का अश हो। अजी ब्रह्मचर्य का तेज है। अवश्य महात्मा है। वे दोनो चले गय। यह दल भी उसी शिविर की आर चल पडा, जिधर से दोना वात परत आ रहे थे। पट-मण्डप के समीप पहुंचन पर देखा, बहुत-स दर्शक खड़े हैं। एप विशिष्ट आसन पर एक वीस वर्ष का युवक हलक रग का कापाय वस्त्र अग पर डाल देता है । जटाजूट नहीं था, कधे तर वाल बिखरे य । आँप सयम के मद स भरी थी। पुष्ट भुजाएं, और तजोमम मुख-मण्डल म आकृति वडी प्रभावशालिनी थी । सचमुच वह युवक तपस्वी भक्ति करने योग्य था । आगन्तुक और उसकी युवती स्त्री न विनम्र होकर नमस्कार किया और नौकर के हाथ से लेकर उपहार सामने रक्खा । महात्मा ने सस्नेह मुस्करा दिया । व सामने बैठे हुए भक्त लोग कथा कहनेवाले एक साधु की वाते मुन रहे थे । वह एक पद की व्याख्या पर रहा था---'तासो चुप ह रहिये' गंगा गुड का स्वाद केस बतावेगा, नमक की पुतली जव लवण-सिन्धु में गिर गई फिर वह अलग होकर क्या अपनी सत्ता वतावेगी । ब्रह्म के लिए भी वैसे ही 'इदमित्य' कहना असम्भव है, इसीलिरा महात्मा ने कहा है..'तामो चुप रहिये । उपस्थित साधु और भक्ता ने एक-दूसरे का मुंह देखते हुए प्रसन्नता प्रकट की। सहसा महात्मा न पहा -एसा ही उपनिषदो में भी रहा है. अवचनन प्रोवाच ।' भक्त-मण्डली न इस विद्वत्ता पर आश्चय प्रपट किया और धन्य-धन्य के शब्द स पट-मण्डप गूज उठा। सम्भ्रान्त पुरुप मुशिक्षित या । उसके हृदय म यह बात समा गई कि महात्मा वास्तवित ज्ञान-सम्पन्न महापुरूप है । उसने अपने साधु-दर्शन की इच्छा की सराहना की और भक्तिपूर्वक वैठकर सत्सग सुनने लगा। रात हो गई, जगह-जगह पर अलाव धधक रह य । शीत की प्रबलता थी। फिर भी धर्म-सयाम क सनापति लोग शिविरो में डटे रहे। कुछ टहरकर आगन्तुम ने जान की आज्ञा चाहो । महात्मा ने पूछा-आप लोगो का शुभ नाम और परिचय क्या है ? हम लोग अमृतसर के रहन वाल है मेरा नाम श्रीचन्द्र है और यह मरी धर्मपली है । वह कर धीचन्द्र ने युवती की ओर धक्त किया। महात्मा ने भी उसकी आर देखा । युवती ने उम दृष्टि म यह अर्थ निकाला कि महात्माजी मेरा ४. प्रसाद वाङ्मय