पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३४८

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उत्तेजित हो रहे है । मैं समझ रहा हूँ कि आप व्यावहारिक समता खोजत है, किन्तु उसकी आधार-शिला तो जनता की सुख-समृद्धि ही है न ? जनता को अर्थ-प्रेम की शिक्षा दकर उस पशु बनाने की चेष्टा नर्थ करेगी । उसम ईश्वरभाव का आत्मा का निवास न होगा ता सब लोग उस दया, सहानुभूति और प्रेम के उद्गम से अपरिचित हो जायेगे जिससे आपका व्यवहार टिकाऊ होगा। प्रकृति म विपमता तो स्पष्ट है । नियन्त्रण के द्वारा उसम व्यावहारिक समता का विकास न होगा । भारतीय आत्मवाद को मानसिक समता ही उसे स्थायी बना सकेगी। यान्त्रिक सभ्यता पुरानी होत ही ढीली होकर वेकार हो जायगी। उसम प्राण बनाये रखने के लिए व्यावहारिक समता के ढाँचे या शरीर में, भारतीय आत्मिक साम्य की आवश्यकता कव मानव-समाज समझ लेगा, यही विचारने की बात है । मैं मानता हूं कि पश्चिम एक शरीर तैयार कर रहा है किन्तु उसम प्राण देना पूर्व क अध्यात्मवादियो का काम है। यही पूर्व और पश्चिम का वास्तविक सगम होगा, जिससे मानवता का स्रोत प्रसन्न धार मे बहा करेगा। तब उस दिन की आशा में हम लोग निश्चेष्ट बैठे रहे ? नही मानवता को कल्याण-कामना म लगना चाहिए । आप जितना कर सके, करते चलिए । इसीलिए न, मैं जितनी ही भलाई देख पाता हूँ, प्रसन होता है । आपकी प्रशसा म मैने जो शब्द कहे थे बनावटी नही थे । मैं हृदय से आपको जाशीर्वाद देता हूँ। इन्द्रदव चुप थे, तितली दूर खडी थी। रामनाथ ने उसकी ओर देखकर कहा—क्यो बेटी, सरदी में क्यो खडी हा ? पूछ लो जो तुम्ह पूछना हो । सकोच किस बात का? बापू, दूध नही है। आपके लिए क्या ? अरे तो न सही, कौन एक रात मे मैं मरा जाता हूँ। इन्द्रदेव ने अभाव की इम तीव्रता में भी प्रसन्न रहते हुए रामनाथ को देखा। वह घबराकर उठ खडे हुए । उनसे यह भी न कहते बन पडा कि मैं ही कुछ भेजता हूँ। चले गये। ___ इन्द्रदेव को छावनी म पहुँचते-पहुँचत बहुत रात हो गई। वह आंगन से धीरे-धीरे कमरे की ओर बढ रहे थे। उनके कमरे म लैम्प जल रहा था । हाथ मे कुछ लिए हुए मलिया कमरे के भीतर जा रही थी । इन्द्रदव खम्भे की छाया में खडे रह गये । मलिया भीतर पहुंची। दो मिनट बाद ही वह झनझनाती हुई बाहर निकल आई। वह अपनी विवशता पर केवल रो सकती थी, किन्तु श्यामलाल का मदिरा-जडित कठ अट्टहास कर उठा, और साथ-ही-साथ अनवरी की ३२० : प्रसाद वाङ्मय