पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

न ! मुझे तुमसे इतने शिष्टाचार की आशा नही । अच्छा अब मैं इधर से जाऊंगी। महौर महतो से एक नौकर के लिए कहा था। उससे भेट कर लूंगी । नमस्कार । शंला चल पड़ी । इन्द्रदेव भी वही से घूम पड़े । एक बार उनकी इच्छा हुई कि बनजरिया में चलकर रामनाथ से कुछ बातचीत करे । अपने क्रोध से अस्तव्यस्त हो रहे थे, उस दशा म श्यामलाल से सामना होना अच्छा न होगा—यही सोचकर रामनाथ की कुटी पर जव पहुंचे, तो देखा कि तितली एक छोटा-सा दीप जलाकर अपन अचल से आड किमै वही आ रही है, जहाँ रामनाथ बैठे हुए सन्ध्या कर रहे थे। तितली ने दीपक रख कर उसको नमस्कार किया, फिर इन्द्रदेव को और रामनाथ को नमस्कार करके आसन लाने के लिए कोठरी में चली गई। रामनाथ ने इन्द्रदेव को अपने कम्बल पर बिठा लिया। पूछा-इस समय कैसे? यो ही इधर घूमते-घूमते चला आया । आपका इस देहात मे यश फैला रहा है । और सचमुच आपने दुखी किसानो के लिए बहुत-से उपकार करने का समारम्भ किया है । मेरा हृदय प्रसन्न हो जाता है; क्योकि विलायत से लौटकर अपने देश की संस्कृति और उसके धर्म की ओर उदासीनता आपने नही दिखाई । परमात्मा आप-जैसे श्रीमानो को मुखी रखे । ____किन्तु आप भूल कर रहे है । मै तो अपने धर्म और संस्कृति से भीतर-हीभीतर निराश हैं। मैं सोचता हूँ कि मेरा सामाजिक बन्धन इतना विशृखल है कि उसम मनुष्य केवल ढोगी बन सकता है। दरिद्र किसानो से अधिक-से-अधिक रस चूसकर एक धनी थोडा-सा दान-कही-कही दया और कभी-कभी छोटामोटा उपकार--करके, सहज ही में आप-जैसे निरीह लोगो का विश्वासपात्र बन सकता है । मुना है कि आप धर्म में प्राणिमात्र की समता देखते है, किन्तु वास्तव मे कितनी विषमता है । सब लोग जीवन में अभाव-ही-अभाव देख पाते । प्रेम का अभाव, स्नेह का अभाव, धन का अभाव शरोर-रक्षा की साधारण आवश्यकताओ का अभाव, दुख और पीडा—यही तो चारा ओर दिखाई पड़ता है। जिसको हम धर्म या सदाचार कहते हैं, वह भी शान्ति नही देता। मवम बनावट, सबम छल-प्रपच ! मैं कहता हूँ कि आप लोग इतने दुखी है कि थोडी-सी सहानुभूति मिलते ही कृतज्ञता नाम की दासता करन लग जाते हैं । इससे तो अच्छी है पश्चिम की आर्थिक या भौतिक समता, जिसमे ईश्वर के न रहने पर भो मनुष्य की सब तरह की सुविधाओं की योजना है। । मालूम होता है, आप इस समय किसी विशेष मानसिक हलचल मे पडकर तितली : ३१६