पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३७

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अव शीत की प्रबलता हा चली थी। उसने चाहा, खिडकी का पल्ला बन्द कर ले। सहसा किसी के रोन की ध्वनि सुनाई दी। किशोरी को उत्कठा हुई, परन्तु क्या करे, 'बलदाऊ बाजार गया था। चुप रही। थोडे ही समय में वल दाम आता दिखाई पड़ा। ____आते ही उसने कहा-बहूरानी, कोई गरीब स्त्री रो रही है। यही नीच पडी है। किशारी भी दुखी थी । सवेदना से प्रेरित होकर उसने कहा-~~-उस लिवात क्या नही आय, कुछ उस द दिया जाता। ___वलदाऊ सुनते ही फिर नीचे उतर गया । उस वुला लाया। वह एक युवती विधवा थी । विलख विलखकर रो रही थी। उसके मलिन वसन का अचल तर हो गया था। किशारी के जाश्वासन देने पर वह सम्हली और बहुत पूछन पर उसने अपनी कथा सुना दी-विधवा का नाम रामा है बरेली की एक ब्राह्मणवधू है । दुराचार का लाछन लगाकर उसके देवर ने उस यहा लाकर छोड दिया । उसके पति के नाम की कुछ भूमि थी, उस पर अधिकार जमाने क लिए उसन यह कुचक्र रचा है। शिशोरी न उसक एक-एक अक्षर पर विश्वास किया क्याकि वह देखती है कि परदेश म उसके पति न ही उस छोड दिया और स्वय चला गया। उसन कहा-तुम घवराआ मत, मैं यहाँ अभी कुछ दिन रहूँगी। मुझ एक ब्राह्मणी चाहिए ही, तुम मेरे पास रहो । मैं तुम्हे बहन क समान रक्खूगी । __रामा कुछ प्रसन्न हुई । उस आश्रय मिल गया। किशारी शैया पर लेटे लटे साचन लगी-पुरुष वडे निर्माही होते है देखा वाणिज्य-व्यवसाय का इतना लोभ कि मुझे छोडकर चले गये । अच्छा, जब तक व स्वय नही आवग, म भी नही जाऊँगी । मरा भी नाम किशोरी है। यही चिन्ता करत-करत किशोरी सा गई। दा दिन तक तपस्वी न मन पर अधिकार जमाने की चष्टा की, परन्तु वह असफल रहा। विद्वत्ता के जितने तर्क जगत को मिथ्या प्रमाणित करन के लिए थे, उन्हान उग्र रूप धारण किया । वे अव समझाते थ–जगत् तो मिथ्या है ही, इसक जितन कम है व भी माया हैं । प्रमाता जीव भी प्रकृति है, क्योकि वह भी अपरा प्रकृति है । जब विश्व मात्र प्राकृत है तब इसम अलौकिक अध्यात्म कहाँ। यही खल यदि जगत् बनानवाल का है, तो वह मुझे खेलना ही चाहिए । वास्तव म गृहस्थ न होकर भी मै वही सब ता करता है जो एक ससारी करता है-वही ककाल