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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३८

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आय-व्यय का निरीक्षण और उसका उपयुक्त व्यवहार, फिर यह सहज उपल मुख क्या छोड दिया जाय? त्यागपूण थोथी दार्शनिकता जब किसी ज्ञानाभास को स्वीकार कर लती है तब उसका धक्का सम्हालना मनुष्य का काम नहीं। उसने फिर सोचा-मठधारिया, साधुओ के लिए व सव पथ खुले होते है । यद्यपि प्राचीन आर्यों को धमनोति म इसीलिए कुटीचर और एकान्तवासियो का ही अनुमादन किया है, परन्तु सघबद्ध होकर बौद्धधर्म ने जा यह अपना कूडा छोड दिया है, उस भारत के धार्मिक सम्प्रदाय अभी भी फेक नही सकत । तो फिर चल ससार अपनी गति से। देवनिरजन अपन विशाल मठ म लौट आया। आर महन्ती नय ढग स दखी जान लगी । भक्तो की पूजा और चढाव का प्रवन्ध हान लगा । गद्दी और तकिय की दख-भाल चली। दो ही दिन में मठ का रूप वदल गया। एक चाँदनी रात थी। गगा के तट पर अखाडे स मिला हुआ उपवन था। विशाल वृक्ष की विरल छाया म चाँदनी उपवन की भूमि पर अनेक चित्र बना रही थी। वसत-समीर न कुछ रग बदला था। निरजन मन के उद्वेग स वही दहल रहा था। किशारी आई । निरजन चौंक उठा । हृदय म रक्त दौडन लगा। किशारी न हाथ जाडकर कहा-~-महाराज, मर ऊपर दया न होगी? निरजन ने कहा-किशारी, तुम मुझको पहचानती हो। किशारी न उस धुंधल प्रकाश म पहचानन की चप्टा की, परन्तु वह असफल होकर नुप रही। निरजन ने फिर कहना प्रारम्भ किया-झलम क तट पर रजन और किशोरी नाम क दो बालक ओर बालिका बलते थे। उनम वडा स्नेह था। रजन जब अपने पिता के साथ हरद्वार जान लगा, तब उसन कहा था कि-~-किशारी, तेरे लिए मै गुडिया ले आऊँगा, परन्तु वह झूठा वालव अपनी बाल-सगिनी के पास फिर न लौटा । क्या तुम वही किशोरी हो? उसका बाल-सहवर इतना बडा महात्मा ---किशारी की समस्त धमनियो म हलचल मच गयी। वह प्रसन्नता से वान उठी---"और क्या तुम वही रजन ____ लडखडात हुए निरजन न उसका हाथ पकड कर कहा- 'हां किशोरो, मैं रजन है। तुमको पान क लिए ही जैस आज तक तपस्या करता रहा, यह चत तप तुम्हारे चरणा म निछावर है । सतान, ऐश्वर्य और उन्नति दन की म जो कुछ शक्ति है, वह सब तुम्हारी है। प्रसाद वाङ्मय