पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३७२

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__'लगे नन बालेपन से राजकुमारी कुछ काल के लिए रुक गई। दुधिया ने कहा-चलो, न मालकिन ! दूर से खडी होकर हम लोग भी नाच देख ले । नही रे ! कोई देख लेगा । कौन देखता है, उधर अंधेरे में बहुत-सी स्त्रियाँ है । वही पीछे हम लोग भी धूंघट खींचकर खडी हो जायेगी । कौन पहचानेगा? राजकुमारी के मन की बात थी। वह मान गई। वह भी जाकर आम के वृक्ष की धनी छाया में छिपकर खड़ी हो गई। बुधिया और कल्लो तो दीठ थी, आगे बढ गई। उधर गाँव की बहुत-सी स्त्रियाँ और लडके बैठे थे । वे सब जाकर उन्ही मे मिल गई। पर राजकुमारी को साहस न हुआ। आम की मजरी की मीठी मतवाली महक उसके मस्तिष्क को बेवैन करने लगी। मैना उन्मत्त होकर पञ्चम स्वर में गा रही थी। उसका नुत्य अद्भुत था । सब लोग चित्रलिखे-से देख रहे थे । कही कोई भी दूसरा शब्द नही मुनाई पडता था । उसके मधुर नूपुर की झनकार उस वसन्त की रात को गुंजा रही थी। राजकुमारी ने विह्वल होकर कहा-वालेपन से, साथ ही एक दबी सास उसके मुंह से निकल गई। वह अपनी विकलता से चचल होकर जल्दी से अपनी कोठरी में पहुँचकर किवाड बन्द कर लेने के लिए घबडा उठी। पर जाय ता कैसे । बुधिया और कल्लो तो भीड में थी। वहाँ जाकर उन्हे बुलाना उसे जंचता न था। उसने मन-ही-मन सोचा-कौन दुर शेरकोट है। मैं क्या अकेली नही जा सकती । कब तक यही खडी रहूँगी ?-वह लौट पड़ी। अन्धकार' का आश्रय लेकर वह शेरकोट की ओर बढने लगी । उधर स एक बाहा पडता था । उसे लांधने के लिए वह क्षण भर के लिए रुकी थी कि पीछे से किसी ने कहा- कौन है ? भय से राजकुमारी के रोएं खडे हो गये । परन्तु अपनी स्वाभाविक तेजस्विता एकत्र करके वह लौट पड़ी। उसने देखा, और कोई नहीं, यह तो सुखदेव चौवे गाव की सीमा में खलिहानो पर से किसानो के गीत मुनाई पड रहे थे । रसीली चांदनी की आर्द्रता से मथर पवन अपनी लहरो से राजकुमारी के शरीर मे रोमाञ्च उत्पन्न करने लगा था। सुखदेव ज्ञानविहीन भूक पशु की तरह, उस आम की अंधेरी छाया में राजकुमारी के परवश शरीर के आलिंगन के लिए, चचल हो रहा था। राजकुमारी की गई हुई चेतना लौट आई। अपनी असहायता मे उसका नारीत्व जगकर गरज उठा । अपने को उसने छुडाते हुए कहा-सुख ३४४ : प्रसाद वाङ्मय