पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४०१

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बन गई है । बाहरी रूप-रेखा जैसे शून्य में विलीन हाने वाले इन्द्रधनुष-सी अपना वर्ण खो रही है। उस अभी अपन मानसिक विप्लव स छुट्टी नही मिली थी। फिर भी उसने सम्हलत हुए पूछा-~तितली | क्या हुआ है बहन | तुम यहाँ कैसे। ___ वडे दु ख में पडकर मै यहाँ आई हूँ वहन । मैं लुट गई । --तितली की रूखो आँखो से आसू निकल पडे । क्यो मधुवन कहाँ है । सुनने ही शैला ने पूछा। पता नहीं । उस दिन गाँव म लाठी चली । रामजस को लोग मारन लगे। उन्होन जाकर रामजस को बचाया, जिसमे छावनी के कई नौकर घायल हो गये । पुलिस की तहकीकात में सव लागों ने उन्ही के विरुद्ध गवाही दी। थानेदार ने रुपया मांगा। और मुकद्दमे के लिए भी रुपयो की आवश्यकता थी। महन्तजी के पास उन्हाने राजो को भेजा । राजो कहती थी कि महन्त ने उसके साथ अनुचित व्यवहार करना चाहा। इस पर वही छिपे हुए उन्होने महन्त का गला घोट दिया । राजो ता चली आई। पर उनका पता नही । यहां तक | और जब लडाई हुई, तब तुमने मुझे क्या नहीं कहला भेजा ? -शैला ने पूछा। परन्तु तितली चुप रही । मेना के सम्बन्ध की बात, अपनी उदासी और राजो की सब कथा कहने के लिए जैसे उसके हृदय मे साहस नही था । तब क्या किया जाय ? उनका पता कैसे लगेगा बहन । इधर शेरकोट पर वेदखली हो गई है । और बनजरिया पर भी डिग्री हुई है, कोई रुपया देता नही । मुकदमा कैसे लडा जाय ? मुझे कोई सहायता नहीं देना चाहता। मैं तो सब ओर से गई । यहाँ कई वकीलो के पास गई। वे कहते है, पहले रुपया ले आओ, तब तुम्हारी बात सुनेगे । फिर एक सज्जन ने बताया कि यही कही मिस्टर देवा नाम के एक सज्जन वैरिस्टर रहते है। वे प्राय दीन-दुखियो के मुकदम विना कुछ लिये लड़ देते है । मैं उन्ही को खोजती हुई यहाँ तक पहुंची। शैला घबरा गई। वह अभी तो इन्द्रदेव के सर्वस्व-त्याग करन का दृश्य देखकर आई थी। उसके मन मे रह-रहकर यही भावना हो रही थी, कि यदि मैं इन्द्रदेव को थोडा-सा भी विश्वास दिला सकती, तो उनके हृदय में यह भीपण विराग न उत्पन्न होता । वह फिर अपने को ही इन्द्रदेव की सासारिक असफलता मानती हुई मन-ही-मन कोस रही थी कि तितली का यह दुख से दग्ध ससार उसके सामने अनुनय की भीख मांगने के लिए खडा था। वह किस मुंह से इन्द्रदेव से उसकी सहायता के लिए कहे। यदि नही कहती है तो अपनी सब दुर्बल तितली: ३७७