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ताएँ तितली से स्वीकार करनी होगी। जिसका हम प्यार करते है, जिसके ऊपर अभिमान करने का ढोग कई बार ससार म प्रचलित कर चुके हैं, उसके लिए यह कहना कि 'वह मुझसे अप्रसन है, मैं नही ' कितनी छोटी बात है | वह कैसे निराश करती। उसने तितली से कहा-अच्छा, ठहरो। मैं आज इसका कोई उपाय करूंगी । तितली । क्या यह जानती हा कि यह मिस्टर देवा कोई दूसरे नही, तुम्हारे जमीदार इन्द्रदव ही है। तितली सन्न हो गई। उसने अपने चारो ओर निराशा के सिन्ध को लहराते हुए देखा । वह रो पड़ी और बोली–बहिन ! तब मुझे एट्टी दो । मैं जाऊँ, कही दूसरी शरण खोजूं । प्यार से उसकी पीठ थपथपात हुए शैला ने कहा--नही, तुम दूसरी जगह न जाओ, मैं आज अपनी ही परीक्षा लूंगी । तुमको यह नहीं मालूम कि आज ही उन्होंने अपनी जमीदारी का स्वत्व त्याग दिया है। क्या कहती हो बहन । हाँ तितली । इन्द्रदेव न अपने एश्वर्य का आवरण दूर फेंक दिया है। वह भी आज हमी लागो के से श्रमजीवी-मात्र हैं । मुये तुम्हारे लिए बहुत-कुछ करना होगा । गाँव का सुधार करन मैं गई थी। क्या एक कुटुम्ब की भी रक्षा न कर सकूँगी ? चलो तुम मेरे कमरे में नहा-धोकर स्वस्थ हो जाओ। मैं इन्द्रदेव से पूछ कर तुमको बुलाती हूँ। इतना कहकर शैला ने तितली का हाथ पकडकर उठाया। और अपनी कोठरी म ले गई। उधर इन्द्रदेव चाय की टेबल पर बैठे हुए शेला की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनका हृदय हल्का हो रहा था । त्याग का अभिमान उनके मुंह पर झलक रहा था और उसम छिपा था एक व्यगभरा रूठने का प्रसग । शैला भी क्या सोचेगी। मन म मनुष्य अपने त्याग स जव प्रम को आभारी बनाता है तब उसका रिक्त कोश बरसे हुए बादला पर पश्चिम के सूर्य के रत्नालोक के समान चमक उठता है । इन्द्रदेव को आज आत्मविश्वास था और उसम प्रगाढ़ प्रसन्नता थी। शैला आई और धीरे स एक कुर्सी खीचकर बैठ गई। दोनो ने चुपचाप चाय की प्याली खाली कर दी। फिर भी चुप । दोना किसी प्रसग की प्रतीक्षा में थे। परन्तु इन्द्रदेव का हृदय तो स्पष्ट हा रहा था । उन्होने चुप रहने की आवश्यकता न समझ कर सीधा प्रश्न किया-तो मैं समझता हूँ कि, कल तुम धामपुर जाआगी? आज तो यही कोठी पर रुकना पडगा। क्योकि मैने तुम्हारा ३७८ प्रसाद वाङ्मय