पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४१२

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सहसा तितली ने पास आकर कहा~मलिया कहां गई ? जीजी । क्या तुमने गऊ के ही खाने के लिए इतना-सा बोझ यहाँ डाल दिया है ? वही दृढ़ स्वर ! वही अविचल भाव । राजो ने चौककर उसकी ओर देखा-~-तितलो | तू आ गई | मधुवन का पता लगा ? मुकदमे मे क्या हुआ? ___कही पता नही लगा। और न तो उनके बिना आये मुक्दमा ही चलता है। तब तक हम लोगो को मुंह सीकर तो रहना नही होगा जीजी | जीना तो पडेगा ही, जितनी सांसे आने-जाने को हैं, उतनी चल कर ही रहेगी । फिर यह क्या हो रहा है ? कहकर उसने गऊ को हांकते हुए अपनी छोटी-सी गठरी रख ___आग लगे ऐसे पेट मे। जीकर ही क्या हागा। भगवान मुझे उठा ही लेत, तो क्या कोई उनको अपराध लगता । मैं तो ! ___मैं भी तुम्हारी-सी ही बात सोचकर एट्टी पा जाती जीजी। पर क्या करूं, मैं वैसा नहीं कर सकती। मुझे तो उनके लौटने के दिन तक जीना पडेगा । और जो कुछ वे छोड गये हैं, उसे सम्हाल कर उनक सामने रख देना होगा। तितली की प्रशान्त दृढता देखकर राजो झल्ला उठी। वह मन-ही-मन सोचने लगी-पढी-लिखी स्त्रियां क्या ऐसी ही होती हैं ? इतनी विपत्ति मे भो जैसे इसको कुछ दुख नही । न जाने इसके मन मे क्या है। ___मनुष्य इसी तरह प्राय दूसरे को समझा करता है। उसके पास थोडा-सा सत्याश और उस पर अनुमानो का घटाटोप लादकर वह दूसरे के हृदय की ऐसी मिथ्या मूर्ति गढ कर ससार के सामने उपस्थित करते हुए निस्सकोच भाव से चिल्ला उठता है कि लो यही है वह हृदय, जिसको तुम खोज रहे थे। मूर्ख मानवता । ___ राजकुमारी ने एक वार और भी किया-तितली । कल लगान का रुपया न जमा होने से बनजरिया भी जायगी । तितली ने गठरी खोल कर अपना कडा, और भी दो-एक जो अंगूठी-छल्ला था, राजकुमारी के सामने रख दिया। राजो ने पूछा- यह क्या? इसको बेच कर रुपये लाओ जीजी । लगान का रुपया देकर जो बचे उससे एक दालान यही वनवाना होगा । मैं यहाँ पर कन्या-पाठशाला चलाऊंगी। और खेती के सामान मे जो कुछ कमी हा, उसे पूरा करना हागा। गाये बेच दो। ३०५, प्रसाद वाङ्मय