पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

चतुर्थ खण्ड अधुबन और रामदीन दोनो ही, उस गार्ड की दया स लोको आफिस म कोयला ढाने की नौकरी पा गये। हबडा के जनाकीर्ण स्थान मे उन दोनो ने अपने को एसा छिपा लिया, जैस मधु-मक्खिया के छत्ते में कोई मक्खी । उन्ह यहा कौन पहचान सकता था। सारा शरीर काला, कपडे काले और उनके लिए ससार भी काला था । अपराध करके वे छिपना चाहते थे। ससार में अपराध करके प्राय मनुष्य अपराधा को छिपाने की चेष्टा नित्य करते है। जब अपराध नही छिपते तब उन्हे ही छिपना पडता है। और अप राधी ससार उनकी इसी दशा से सन्तुष्ट हाकर अपने नियमो की कडाई की प्रशसा करता है । वह बहुत दिना से सचेष्ट है कि ससार से अपराध उन्मूलित हा जाय । किन्तु अपनी चेष्टाओ से वह नये नये-नये अपराधा की सृष्टि करता जा रहा है। हाँ, तो वे दोनो अपराधी थे। कोयले की राख उनक गालो और मस्तक पर लगी रहती, जिसमे आँखे विलक्षणता से चमका करती। मधुबन प्राय रामदीन से कहा करता-जैसा किया उसका फल तो खूब मिला । मुंह म कालिख लगाकर देश-निकाला इसी को न कहते हैं ? भइया, सबका दिन वदलता है । कभी हम लोगो का दिन पलटेगा-रामदीन ने कहा। उस दिन दोना को छुट्टी मिल गई थी। उनके टीन से बन मुहल्ले में अभी सनाटा था । अन्य कुली काम पर स नही थाये थे । सूर्य की किरणे उनकी छाजन के नीचे हो गई थी । उनका घर पूर्व के द्वार वाला था । सामने एक छोटा-सा गढा था, जिसम गंदला पानी भरा था। उसी म वे लोग अपने वरतन मांजते थे। एक बहा-सा ईंटा का ढेर वही पडा था, जो चौतरे का काम देता है। मधुबन मुंह साफ करने के लिए उसी गढ़े के पास आया। धृणा से उसको रोमाच तितली • ३६१