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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४१६

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हो आया । उसको आँखों में ज्वाला थी। शरीर भी तप रहा था । ज्वर के पूर्व लक्षण थे। वह अंजली में पानी भरकर उंगलियों को सधि से धीरे-धीरे गिराने लगा । रामदीन एक पीतल का तसला मॉज रहा था। वहां चार ईटो की एक चौकी थी। चिरकिट उस चौकी पर अपना पूर्ण अधिकार समझता था। वह जमादार था । आज उसके न रहने पर ही रामदीन वही बैठकर तसला धो रहा था। मधुवन ने कहा-रामदीन, उस बम्बे से आज एक बाल्टी पानी ले आओ। मुझे ज्वर हो आया है। उसमे से एक लोटा गरम करके मेरे सिरहाने रख देना! मैं सोने जाता हूँ। भइया, अभी तो किरन डूब रही है। तनिक बैठे रहो। अभी दीया जल जाने दो।-रामदीन ने अभी इतना ही कहा कि चिरकिट ने दूर से ललकारा-- कौन है रे चौतरिया पर बैठा ? रामदीन उठने लगा था। मधुबन ने उसे बैठे रहने का संकेत किया। वह कुछ बोला भी नही, उठा भी नही । चिरकिट यह अपमान कैसे सह सकता । उसने आते ही अपना वरतन रामदीन के ऊपर दे मारा । मधुवन को कोयले की कालिमा से जितनी घृणा थी, उससे अधिक थी चिरकिट के घमण्ड से । वह आज कुछ उत्तेजित था । मन की स्वाभाविक क्रिया कुछ तीव्र हो उठी । उसने कहायह क्या चिरकिट ! तुमने उस बेचारे पर अपने जूठे बरतन फेक दिये ! फेक तो दिये, जो मेरे चौतरिया पर वैठेगा वही इस तरह...वह आगे कुछ कह न सके, इसलिए मधुबन ने कहा-चुप रहो-चिरकिट तुम पाजीपन भी करते हो और सवसे टरतेि हो । वह वरतन मौजकर इंटे नही उठा ले जायगा । हट जाता है तो तुम भी मांज लेना। नही, उसको अभी हटना होगा। अभी तो न हटेगा । गरम न हो । बैठ जाओ । वह देखो, तसला धुल गया । क्रोध से उन्मत्त किरकिट ने कहा- यहाँ धाँधली नही चलेगी। ढोयेगे कोयला, बनेगे ब्राह्मण-ठाकुर । तुम्हारा जनेऊ देखकर यहां कोई न डरेगा । यह गांव नही है, जहां घास का बोझ लिये जाते भी तुमको देखकर खाट से उठ खडा होना पडेगा! __मधुबन ने अपने छोटे कुर्ते के नीचे लटकते हुए जनेऊ को देखा, फिर उस चिरकिट के मुंह की ओर । चिरकिट उस विकट दृष्टि को न सह सका । उसने मुंह नीचे कर लिया था, तब भी झापड़ लगा ही। वह चिल्ला उठा-अरे मनवा, दौड रे ! मार डाला रे ! ३६२ : प्रसाद वाङ्मय