पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४३४

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बहुत सा मिथ्या प्रदर्शन भी होता है । क्या तुम इस वातावरण म उसे भूल नही सकी हो ? यदि नही, तो मैं उसे तुम्हारा सौभाग्य कैस कहूँ? मैं तो जानती हूँ कि स्त्री, स्त्री ही रहेगी। कठिन पीडा से उद्विग्न होकर आज का स्त्री-समाज जो करन जा रहा है वह क्या वास्तविक है ? वह ता विद्राह है सुधार के लिए! इतनी उद्दण्डता ठीक नही। तुम इन्द्रदेव के स्नही हृदय में ठेस न पहुँचाओगी। एसा ना मुझे विश्वास है । पर जब से वह धामपुर से लौट आय है, उदास रहते है । कारण क्या है तुम कुछ सोचने का कष्ट करोगी? हा, एक बात और है। तुम्हारी सास अपनी अन्तिम सासो को गिन रही है । क्या तुम एक बार इन्द्रदेव के साथ उनके पास न जा सकागी ? तुम्हारी स्नहमयी नन्दरानी दूसर दिन बड़े सबेरे-जव पूर्व दिशा की लाली का थाडे-से काले बादल ढंक रह थ गगा म से निकलती हुई भाप पर थोडा थोडा सुनहला रग चढ रहा था तव-शैला चुपचाप उस दृश्य का देखती हुई मन-ही-मन कह उठी-नही, अब साफ-साफ हो जाना चाहिए। कही यह मेरा भ्रम ता नही? मुझे निराधार इस भाप की लता की तरह बिना किसी आलम्बन के इस अनन्त मे व्यर्थ प्रयास नही ही करना चाहिए । इन दो-एक किरणा से तो काम नही चलने का। मुझे चाहिए सम्पूर्ण प्रकाश | मैं कृतज्ञ हूँ, इतना ही ता | अब मुझस क्या माँग है ? इन्द्रदेव के साथ क्या निभन का नही ? वह स्वतत्रता का महत्त्व नही समझ सके। उनके जीवन क चारो ओर सीमा की टेढी-मढी रखा अपनी विभीपिका स उन्हे व्यस्त रखती है । उनको सन्दह है, और होना भी चाहिए। क्या मै बिल्कुल निष्कपट हूँ? क्या वाट्सन ? नहो-नही वह केवल स्निग्ध भाव और आत्मीयता का प्रसार है । ता भी मैं इन्द्रदव से विरक्त क्यो हूँ ? मरे पास इसका कोई उत्तर नही । इतन थोडे-से समय में यह परिवर्तन ! मैंने इन्द्रदव के समीप होने के लिए 1 जितना प्रयास किया था, जितनी साधना की थी, वह सब क्या ऊपरी थी? और वाट्सन । फिर वहां वाट्सन । उसन झल्लाकर दूसरी ओर मुंह फेर लिया ! उधर स ही एक डागी पर वाट्सन, अपन हाथ स डॉडा चलाते हुए, आ रह थ। सामन मल्लाह सिकुडा हुआ बैठा था। बादल फट गया था। सूर्य का विम्ब पूरा निकल आया था । गगा धीरे-धीरे बह रही थी। सकल्प-विकल्प क कूलो म मधुर प्रणय-कल्पना-सी वह धारा सुन्दर और शीतल थी। ४१० प्रसाद वाङ्मय