पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४४४

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ज्योति से भरा था। जैसे उसके मन में आशा का सचार हुआ। उसका हृदय एक बार उत्साह से भर गया। उसने आँखे खोल दी। फिर उसके मन मे विकार उत्पन्न हुआ। ग्लानि से उसका मन भरा गया । उसे जैसे अपने-आप से घृणा होने लगी-क्या तितली मुझसे स्नेह करेगी? मुझ अपराधी से उसका वही सम्बन्ध फिर स्थापित हो सकेगा? मैंने उसका ही यदि स्मरण किया होता-- जीवन के शून्य अश को उसी के प्रेम से, केवल उसको पवित्रता से, भर लिया होता-तो आज यह दिन मुझे न देखना पडता । किन्तु क्या वही तितली होगी? अब भी वैसी ही पवित्र | इस नोच ससार मे, जहाँ पग-पग पर प्रलोभन है, खाई है, आनन्द की-सुख की लालसा है । क्या वह वैसी ही बनी होगी? जंगले के द्वार पर कुछ खडखडाहट हुई। प्रधान कर्मचारी ने भीतर आकर कहा मधुबन, तुम्हारी अच्छी चाल-चलन से सन्तुष्ट होकर तुमको दो वरस की छूट मिली है । तुम छोड दिये गये। मधुवन ने अवाक् होकर कर्मचारी को देखा । वह उठ खडा हुआ। बेडियाँ झनझना उठी । उसे आश्चर्य हुआ अपने शीघ्र छूटने पर । वह अभी विश्वास नही कर सका था। उसने पूछा-तो मैं छूट कर क्या करूंगा। फिर डाके न डालना, और जो चाहे करना। ---कहकर वह कोठरी के बाहर हो गया । मधुबन भी निकाला गया। फाटक पर उसका पुराना कोट और कुछ पैसे मिले । उस काट को देखते ही जैमे उसके सामन आठ वरस पहले को घटना का चित्र खिंच गया। वह उसे उठाकर पहन न मका । और पैसे ? उन्हे कैसे छोड सकता था। उसने लौट कर देखा तो जेल का जंगलेदार फाटक बन्द हो गया था। उसके सामने खुला हुआ ससार एक विस्तृत कारागार के सदृश झांय-झाय कर रहा था । उसकी हताश आँखो के सामने उस उजले दिन में भी चारो आर अँधेरा था । जैसे सन्ध्या चारो ओर से घिरती चली आ रही थी। जीवन के विश्राम के लिए शीतल छाया की आवश्यकता थी । किन्तु वह जेल से छटा हुआ अपराधी । उस कोन आश्रय देगा? वह धीरे-धीरे वीरू बाबू के अड्डे की ओर बढ़ा । किन्तु वहाँ जाकर उसने देखा कि घर मे ताला बन्द है। वह उन पैसो से कुछ पूरियाँ लेकर पानी की कल के पास बैठकर खा ही रहा था कि एक अपरिचित व्यक्ति ने पुकारामधुबन ! उसने पहचानने की चेष्टा को, किन्तु वह असफल रहा। फिर उदास भाव से उसने पूछा-क्या है भाई, तुम कौन हो ? ४२०:प्रसाद वाङ्मय