पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४४६

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मधुवन नियति के अधड में उडते हुए मूब पत्ते की तरह निरुपाय था। उसके पास स्वतन्त्र रूप से अपना पथ निर्धारित करने के लिए कोई साधन न था। वह जेल से छूटकर हरिहरक्षेत्र चला। कई कोस का यह मला न जाने भारतवर्ष के किस अतीत के प्रसन्न युग का स्मरण-चिह्न है। सभव है, मगध के साम्राज्य की वह कभी प्रदर्शनी रहा हो । किन्तु आज भी उसमे क्या नही विकता। लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि अब इस युग मे भी वहाँ भूत-प्रेत बिकते है ! ____ मधुवन ने अपनी दाढ़ी नही बनवाई थी। उसके बाल भी वैसे ही वढे थे । वह दूकान की चौकीदारी पर नियुक्त था। ___सावुन को दूकान सजी थी। मधुवन मोटा-सा डडा लिए एक तिपाई पर बैठा रहता । वह केवल ननी से ही बोलता । उसका स्वभाव शान्त हो गया था, या अतीव क्रुद्ध, यह नही ज्ञात होता था। ननी के बहुत कहने-सुनने पर एक दिन वह गगा-स्नान करने गया। वहां से लौटकर हाथियो के झुडो को देखता हुआ वह धीरे-धीरे आ रहा था। वहाँ उसने दो-तीन बड़े सुन्दर हाथी के बच्चा को खलते हुए देखा। वह जनमना-सा होकर मेले में घूमने लगा। मनुष्य के बच्चे भी कितने सुन्दर होते होगे जब पशुआ के ऐसे आकर्षक है । यही सोचते-सोचते उसे अपनी गृहस्थी का स्मरण हो आया । उडती हुई रेत मे वह धूसरित होकर उन्मत्त की तरह पालकी, घोड, बैल, ऊँट और गायो की पक्ति को देखता रहा । देखता था, पर उसकी समझ में यह बात नही आती थी कि मनुष्य क्यो अपने लिए इतना ससार जुटाता है। वह सोचने के लिए मस्तिष्क पर वोझ डालता था, फिर विरक्त हो जाता था। केवल घूमने के लिए वह घूमता रहा । ___सध्या हो आई । दूकानो पर आलोक-माला जगमगा उठी। डेरो मे नृत्य होने लगा । गाने की एक मधुर तान उसके कानो मे पडो। वह बहुत दिनो पर ऐसा गाना मुन मका था । डेरे के बहुत से लोग खडे थे। वह भी जाकर खडा हो गया। मैना हो तो है, वही...अरे कितना मादक स्वर है। एक मनचले ने कहा—वाह, महन्तजी वडे आनन्दी पुरुष है। मधुवन ने पूछा-कौन महन्तजी? धामपुर के महन्त को तुम नही जानते ? अभी कल ही तो उन्होन तोन ४२२ : प्रसाद वाङ्मय