पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४५६

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मधु जो मिला, वह क्या इतना अमर कर देने वाला है कि यत्रणा मे पीडित होकर वह अनन्तकाल तक प्रतीक्षा करती हुई जीती रहगी? उसे अपनी ससार-यात्रा की वास्तविकता मे सन्देह होने लगा। वह क्या इतनी धूम-धाम से हलचल मचाकर ससार व नश्वर लोक म अपना अस्तित्व सिद्ध करने की चेष्टा करती रही ? जियगी, ता झेलेगा कौन ? यह जीवन कितनी विषम घाटिया से होकर धीरे-धीरे अन्धकार की गुफा में प्रवेश कर रहा है । मैं निरालम्ब होकर चलने का विफल प्रयत्न कर रही हूं क्या? गाव भर मुझसे कुछ लाभ उठाता है, और मुझे भी कुछ मिलता है, किन्तु उसके भीतर एक छिपा हुआ तिरस्कार का भाव है। और है मेरा अलक्षित बहिष्कार । मैं स्वय ही नही जानती, किन्तु यह क्या मेरे मन का सन्दह नही है ? मुझे जीभ दबाकर लोग न जाने क्या-क्या कहते है। यह सब चल रहा है तो भी मैं अपने म जैस किसी तरह सन्तुष्ट हा लेती हूँ। ___मेरी स्व-चेतना का यही अर्थ है कि मैं और लोगो की दृष्टि मे लघुता से देखी जाती हूँ, मैं और उसकी जानकारी स अपने को अछूती रखना चाहती है। किन्तु यह 'लुक-छिप कब तक चला करेगी ? एक बार ध्वस होकर यह खंडहर भी शेरकोट की तरह बन जाय ! शैला | कितनी प्यारी और स्नेह भरी महेली है। किन्तु उससे भी मन खोलकर मैं नही मिल सकती । वह फिर भी सामाजिक मर्यादा मे मुझसे बडी है और मुझे वैसा कोई आधार नही । है भी तो केवल एक मोहन का । वह कोमल अवलम्ब । अपनी ही मानसिक जटिलताओ से अभी से दुर्बल हो चला है। वह साचने लगा है, कुढने लगा है, किसी से कुछ कहता नही । जैसे लज्जा की छाया, उसके सुन्दर मुख पर दौड जाती है । मुझसे अपनी मां से, अपनी मन की व्यथा खोलकर नहीं कह सकता । हे भगवान् । वह रोन लगी थी । हाँ, हा, रोन में आज उसे सुख मिलता था । किन्तु वह रोने वाली स्त्री न थी। वह धीरे धीरे शान्त होकर प्रकृतिस्थ होने लगी थी । सहसा दौडता हुआ मोहन आया। पीछे राजा थी। वह कह रही था--देख न, रोटी और दूध दे रही हूँ। यह कहता है, आज तरकारी क्यो नही बनी । अपने बाप की तरह यह भी मुझको खाने के लिए तग करता ही है । मोहन तितली के पास आ गया था । तितली ने उसके सिर पर हाथ रखा, वह जल रहा था। उसने कहा-मा, मुझे भूख नही है । अरे तुमको तो ज्वर हो रहा है ! -तितली न भयभीत स्वर मे कहा। क्या ? अब तो इसका आज खाने को नहीं देना चाहिए । ४३ : प्रसाद वाडमय