पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४६५

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चाहता । यह व्याख्यान मन्दिर मे न देकर कही और देने की कृपा कीजिए। मुझे ता स्पष्ट राजा की आज्ञा मिलनी चाहिए । शासक मुझसे क्या चाहता है। शासन-दण्ड-धर्म म परिवर्तन नहीं करा सकता। हाँ, उसके राष्ट्र म मेरा धर्म कहाँ तक वाधक है, यह मैं देख लूंगा।" कुमार का क्रोध अब अपने म नहीं रह सका। उसने उच्च कठ से कहा"तो सुनो, मौर्य-साम्राज्य की प्रधान नीति धर्म-सशोधन की है। जितने अनाचार हैं, वे सा राष्ट्र मे न हाने पावेगे।" ___ ब्रह्मचारी की आँखा से एक बार फिर ज्वाला निकली । महाकाल के पुजारी न दृढ कठ से कहा-"किन्तु भगवान् का ताण्डव-नृत्य क्या है ? तुम नही जानते कुमार | उस नृत्य को रोकने की किसम क्षमता है | तुम्हारो समस्त शक्ति उन शक्तिनाथ की विभूति का एक कण है। वडे-बडे साम्राज्य और सम्राट् उसकी एक दृष्टि म नाश होते हैं । सावधान । ___ ब्रह्मचारी का वाक्य पूरा नही होन पाया था कि दा उल्काधारिया के साथ एक सम्म्रान्त राजपुरुष न दोडते हुए आकर कहा-"कुमार को जय हा । सम्राट शतधनुप ने निर्वाण प्राप्त किया ।' एक क्षण मे महान परिवर्तन | ब्रह्मचारी ने मुस्करा दिया। अग्निमित्र चकित हा रहा था । और युवा कुमार यह नही साच सकता था कि वह शोक प्रकट करे या राज्य प्राप्त करने का हर्प । क्योकि साम्राज्य के सिंहासन पाने में वडी बाधाएँ थी। वह अवनत मस्तक नुप खडा था। राजनिधन का समाचार मन्दिर के कोने-काने में फैल गया। साथ ही-~-- उपासका ने दव, किन्तु दृढ स्वर म कहा "यह महाकाल का काप है। महाकुमार वृहस्पतिमित्र ने उस अवसाद से ऊपर उठने की चेष्टा करते हुए कहा-"प्रादेशिक । इस नर्तकी को अभी कुछ दिना के लिए संघ म भेज दी और मैं कुसुमपुर जा रहा हूँ । जा कर है वह भी सना के साथ मेरे पीछे-पीछे शीघ्र पहुंचे, इसम भूल न हो।' बृहस्पतिमित्र मन्दिर-प्रागण से बाहर हा गया । और पुष्परथ पर बैठ कर वेग से उसी रात्रि के अन्धकार मे पाटलिपुत्र की ओर चल पडा । उज्जयिनी की भयभीत जनता ने देखा कि उल्काधारी अश्वारोहियो के बीच एक क्रूर पिशाचपरिवार गन्धर्व-नगर की तरह उडा जा रहा है। जनता सौट कर भागनाई। ब्रह्मवारी निवल-मार सह क द्वार पर खड़ा था। और अग्निमित्र जैसे निरुपाय छटपटा रहा था। इरावती पुपचाप खडी थी। उसी दृष्टि से तिरस्कार की सहर उठ रही इरावती ४४३