पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४६६

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यी । प्रादशिक प्रतीक्षा कर रहा था। भिक्षुणी-सघ म समाचार भेजा जा चुका या। अग्निमिन अपन का उलझना से बाहर करने क लिए अभी तक सघप कर रहा था। उसने कहा- इरा | तुम भिक्षुणी होन के पहले मुझस कुछ बातें न कर लोगी? प्रादेशिक उद्विग्न मन से साम्राज्य के उलट-फेर की वात साच रहा था। उसन अपन साथी सैनिक से कहा- 'मैं जाता हूँ। यह स्त्री तब तक अपने इस परिचित स वात करती है, फिर भिक्षुणी-सघ से किसो के आ जान पर उसी क साथ इसे पहुँचा दना । समझा न ।' प्रादशिक महामात्य चला गया । इरावती ने कहा---' क्या विना मुझसे पूछे तुम रह नही सकते ? अग्नि | मैं जीवन-रागिनी म वर्जित स्वर हूँ। मुझे छेडकर तुम सुखी न हो सकोगे। “इरा । यह असम्भव है। मै तुमस अपनी असमर्थता का विवरण देना चाहता हूँ। जिस अवस्था मे मुझे तुमस अलग होना पड़ा । ठहरा मुझे उसकी आवश्यकता नहीं । तुम यही न कहोगे कि तुम्हार गुरुजन मरा और तुम्हारा सम्बन्ध अच्छी आखो से नहीं देख सके । और तुम उनका प्रत्याख्यान नहीं कर सकते थे । ठीक है | गुरुजन । बाल्यकाल म जितनी सवाशुश्रूपा, प्यार-दुलार और आज्ञाकारिता तुम्हारी कर चुके है उस सब का प्रतिदान चाहत है । और तुम ऋणी हो, उसे चुकाना पडेगा। मेरा ता तुमसे कुछ प्राप्य नही । झिडकी मारपीट और चिढाना यह सब जा था वह तो शैशव म ही मिल चुका था। फिर अब आदान-प्रदान कैसा? 'इरा | तुम मुझे कहने भो न दागी । तुम्हारे निरुद्देश्य होने पर मैं कहाँकहा भटकता हुआ यहा “मुझसे मिले, मुझे बचाना चाहते हा । यह तुम्हारी अनुकम्पा है। परन्तु मेर ऊपर मेरा भी कुछ ऋण है। मैंने भी अपने को, इतने दिनो स ससार स सार लकर-भीख माग कर-~अनुग्रह से अनुरोध से जुटाकर कैसा कुछ खडा कर दिया है । उस मूर्ति को क्यो बिगाडू? स्त्री के लिए, जब देखा कि स्वावलम्बन का उपाय कला के अतिरिक्त दूसरा नही, तब उसी का आथय लकर जी रही हूँ। मुझे अपन म जीने दो। ___ "किन्तु वह भी अब कहाँ ? तुम तो भिक्षुणी बनन जा रही हो इरा। 'देवता के सामने नाच चुकी, अव देखू अदेवता-अनात्म मुझे कौन नाच नचाता है । घबराओ मत अग्निमित्र, मैं कदाचित् तुम्हारे लिए अपने को प्रस्तुत ४४४ प्रसाद वाङ्मय