पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४७७

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सम्राट् कुछ चिन्तित हुए। उन्हान महावलाधिकृत को बुला कर कहा--- आप कालिंजर और गापाद्रि के अश्वाराही गुल्मा को लेकर आगे बढे । यवनो को शिक्षा देनी होगी।" वृद्ध सनापति स अब न रहा गया। उसने अञ्जलिवद्ध हाकर कहा–' जैसी आज्ञा हो देव । किन्तु एक प्रार्थना मेरी भी सुन लीजिए । सैनिको मे असताप है। उनके लिए महामात्य के कोप म द्रव्य नहीं। व बरावर धर्ममहामान की आवश्यकताआ से छुट्टी नही पाते । विहारो मे दिय जाने वाले राजानुग्रह अपरि माण हो रहे हैं । युद्ध काल म मौर्य-साम्राज्य की नीति को सेना को ही दवता मानती रही है। किन्तु अब तो वे जैसे आवश्यक अग न हो कर शोभा-मान रह गये हैं। फिर भी मैं तो जाता हूँ। सना के लिए आवश्यक वस्तु और उसक समय पर पहुंचने का प्रवध सम्राट् स्वय न देखगे तो बहुत दिना स सुपचाप बैठी हुई अनभ्यस्त सना कुछ कर सकेगी कि नही, इसम सदेह है। 'क्या सना कुछ न कर सकेगी? -सम्राट् न रोष से पूछा। 'सम्राट् । धम-विजय के सामने शस्त्र-विजय को गौण वनाते रहने का यह अवश्यम्भावी फन है। आज को सना में कही लडे हुए सैनिका का अभाव है। जलीक के द्वारा पचनद का प्रदश साम्राज्य स अलग कर लन के बाद भी मगध की आख नही खुली । प्रात सुरक्षित मान लिये गये । आज वही प्रात यवनो के हाथ मे पड गया है। फिर कान्यकुब्ज पर आक्रमण हात क्तिना विलम्ब है ? मैं तो कान्यकुब्ज की रक्षा के लिए प्रस्थान करता हूँ, किन्तु एक बात कह जाता हूँ कि मगध के दक्षिणी प्रान्त दुर्ग राहिताश्व, मुद्गगिरि और शोण के सम्पूर्ण तट को भी रक्षा आवश्यक है। सम्राट् को जैस थप्पड-सा गा । वह अपनी स्थिति को समझ गय । जाज मगध, यवनो और खारवेल क बीच में ता है ही, आन्ध्र और विदर्भ न भी सिर उठाया तो । फिर भी साहस स कहा-'मगध का सिंह इस महामेघवाहन हाथी को तो साध ही लेगा । आप कान्यकुब्ज की रक्षा कीजिए। सतो. मागधो ने स्तुतिपाठ किया। सभा विसर्जित हुई। महानायक पुष्यमित सबके चले जाने पर भी रुके रहे । अग्निमित्र से उन्होंने कहा-"दक्षिण का संभा लना तुम्हारा काम है । देखो यह अवसर हाथ से न जाने दना। ___"तात I मैं अभी युद्ध करना नहीं चाहता । मुझे तो उचित यही जान पड़ता है कि में दक्षिण के प्रान्त दुर्गों का सगठन कर लू, तब तक क्या आप सम्राट् मे कोई कोमल उत्तर खारवल के पास भेजने का उपाय नही करगे। इधर बराबर आन्ध्र, कलिंग और विदर्भ को राजनीति का अध्ययन करता इरावती ४५७