पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४७६

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सम्राट् न हंस कर पुष्यमित्र की आर देखा । जैसे पूछ रहे थे कि क्या कहते हो ? इसकी प्रगल्भता देख ली न । विन्तु सहसा उसी की आर मुडकर सम्राट् ने कहा "ता क्या सचमुच तुम्हारी रसना की तरह ही तुम्हारी तलवार भी चलती है । यह मैं मान लं कि अपने पिता के समान ही तुम पराक्रमी भी हा?" “सम्राट् । इसकी परीक्षा ले ले । मनुष्य, व्यात्र चाहे जिससे द्वन्द्व करा कर मरा पुरुपार्थ देख लिया जाय ।" "नही-नही, मनुष्य और व्याघ्र स लडाना मै नही चाहता । क्यो न तुम हाथी से लडा दिये जाओ।" सम्राट् के वरमा के आचरण स परिषद् के बहुत-स लोगो की यह धारणा थी कि वह कुछ-कुछ इक्को और अव्यवस्थित चित्त के असयमी व्यक्ति है । अग्निमित्र न समझा यह प्राण लेने पर तुला है । निश्चय यह सदेह करता है इरावती के साथ मेरे स्नेह होने का। तव मै भी क्या न समझू कि सम्राट् भी मनुष्य है, और वह इरावती के प्रति आकर्पित है । सम्राट् ने सव्यग्य स्मिति के साथ कहा- 'वस हा चुका न | अब ता बालत भी नही। "मैं प्रस्तुत है।" पुष्यमित्र कुछ कहन के लिए मुंह खाल रहे थ कि सम्राट् न कहा- 'महादण्डनायक । पार्श्वनाथ गिरि पर एक हाथी है, उसी स लडने अग्निमित्र का जाना होगा । म महामेध नामक हाथी पर सवार होने वाले खारवेल को भी एक हाथी ही समझता हूँ।" इस व्यग्य विनोद पर परिषद् प्रफुल्ल हो उठी । सम्राट् कभी, जब इस तरह की खुली परिषद् हाती, तभी काई-न-कोई एसा विनोद करते । और उसकी चर्चा साम्राज्य भर में फैलती । परिहास की उनमे अच्छी शक्ति है, इस तो उस काल के नागरिक मानने लगे थे। ___ महिपी ने हंस कर पान बढाया। चामरधारिणी युवतियों की कलाई-नृत्य करने लगी, परिषद् मे उत्साह फैल गया था। अग्निमित्र की शृखलाएँ खुल गयी। सम्राट् ने उस बुलाकर खड्ग प्रदान किया। एक स्वर स सभा कह उठी-“परम भट्टारक राजाधिराज बृहस्पतिमिन की जय !" साधि विग्रहिक फिर आया। बृहस्पतिमित्र न पूछा-"क्या है ?" "देव | एक और भी चिन्ताजनक समाचार है। गान्धार से दिमित्र यवन पचनद की आर बढ़ रहा है। सभवत उसकी इच्छा गगा पार करन की है । उसन नियमित कर भेजना तो बहुत दिन से बद कर रक्खा है, अब यवना की इच्छा कुछ दूसरी ही है।"-महासाधि विग्रहिक ने विनम्र हाकर कहा । ४५६ : प्रसाद वाङ्मय