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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४८८

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सायी की प्रार्थना है । जिस धर्म और शान्ति तथा सभ्यता के लिए मगध-निवासी मरे जा रहे हैं, वह शक्ति के बिना रह नही सकती। मगध के एक-एक अन्न, एक-एक प्राणी का जिसमे सदुपयोग हो, वही व्यवस्था कीजिए सम्राट् --मगध की जय " ____ वृद्ध का कठ गद्गद हो रहा है । वीर-श्री से उसका मुख-मण्डल दीप्त था। किन्तु धर्म-विजय करने वाले सम्राट् के मुख से एक शब्द भी न निकला । पुष्यमित्र अपने घोडे पर से कूदकर वृद्ध के समीप जाया । सनापति का चरण पकडकर उसने उच्च कठ स कहा-“सेनापति आर्य । विश्वास कीजिए । पुष्यमित्र के जीवित रहते मगध का विनाश न होगा । आपकी आज्ञा अक्षरश पालन को जायगी।" वृद्ध ने स्नह से पुष्यमित्र के सिर पर हाथ फेरकर कहा-"मुझे तुमस एसो ही आशा है । मगध की जय ।"-और श्वेत अश्व बढ चला । सम्राट् हतप्रभ । एक शब्द भी मुंह से न निकला । वे दूर धर्म-महामान की शिक्किा देख रहे थे । सेनापति चले गये । धूल से अब उनकी सना छिप गई थी। महाराज धीरेधीर गजसेना के साथ नगर से राजप्रासाद की आर चले । पुष्यमित्र न वही खडेखडे एक बार चारो ओर देखा । अग्नि जा पीछे घोडे पर था, बाला-"क्या आज्ञा है।' "तुमको सीध पार्श्वनाथ गिरि जाना होगा । डरा मत । युद्ध नही, कुछ बात करनी होगी । जा सकोगे ?" 'यदि आपकी आज्ञा हा तो, किन्तु जाने से काई लाभ नहीं।" । "क्यो?" "इसलिए कि मगध का निमश्रण अव खारवेल को मिल चुका होगा । सभवत वह मगध म अपनी गजसना के साथ कुछ ही दिनो म आ जायगा।" "तुम कहते क्या हो?" "यह देखिए सम्राट् के पत्र को यह प्रतिलिपि है।" कहकर अग्निमित्र न एक पत्र हाथ पर रख दिया। पुष्यमित्र न कहा--"मैं इसे अधकार म नही पढ़ सकता । तुम कहो न । इसम लिखा क्या है ?" ___"इसम लिखा है---आप स्वयं आकर भगवान् अग्र जिनकी स्वर्णप्रतिमा उत्सव के समारोह के साथ ले जायं।" दोना क घोड बराबर सटे हुए चल रहे थे। पुष्यमित्र स्तब्ध थे। उनका अश्व धीमे-धीमे चल रहा था । और वह जैसे निर्जीव-से उस पर बैठे थे। एक उल्काधारी कब से उनके साथ हो गया था यह उन लोगो का नही मालूम । ४७०: प्रसाद वाङ्मय