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हुए अग्निमित्र ने अपनी कमर से लगी हुई तलवार टटाली, फिर सिर झुकाकर नमस्कार करते हुए वह चला गया । पुष्यमित्र को आश्चय क साथ अग्नि पर क्रोध भा जाया । उसन झुंझला कर कहा-- 'इसका जन्म ही मूल नक्षत्र मे हुआ था और तभी ज्योतिपी न कहा था कि बारह वर्ष यह पिता के सामने न आवे । किन्तु आज वीस वर्ष की अवस्था में भी क्या इसक साथ दखा मुनी की जा सकती है ? जैसा नाम वैसा ही काम, जैस अग्नि का दूत | ता फिर जाय | -पुष्यमित्र भीतर चला गया। नगर के पूर्वीय द्वार की ओर न जाकर अग्निमित्र उत्तर में सुगाग प्रासाद का ओर धीर धीर अन्धकार की छाया म वढता जा रहा है । प्रहरिया के चक्र से वचता हुआ एक स्थान पर वह रुका ही था कि किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रख दिया। उसने चौक कर अपनी छोटी-सी कृपाण निकाल ली। परन्तु उस व्यक्ति न कहा- डरा मत ! मित्र स डरने की कोई बात नही। तिस पर स्त्री | मेरी स्वामिनी विपन है, आप उनकी सहायता के लिए वचन दे चुके है न । तो फिर आइए। 'तुम कौन हो ? "कालिन्दी दवी की परिचारिका । 'अच्छा चला। -स्त्री न उसका हाथ पकड कर एक शिला खण्ड पर खडा कर दिया। फिर न जान कौन-सी क्रिया की कि वह पत्थर नीचे घुस चला । अग्निमित्र सशक हुआ, फिर भी साहस न छोडकर वह चुपचाप रहा । पत्थर क रुकन पर उसन देखा कि वह मुरग क भीतर खडा है। दूर स एक तीव्र नीला आलाक आ रहा है । आख चौध गई। फिर दखा तो वह अकला है और पत्थर ऊपर से बन्द हो गया है उसन आगे बढने का ही निश्चय किया। सुरग के दूसरे सिरे पर सात सीढिया थी। अग्नि कृपाण हाय म लिए ऊपर चढा। जब वह द्वार स निकल कर बाहर आया, तो देखा एक स्त्री वहा खडी है । वह छाटा-सा उद्यान कुजा और झुरमुटा से भरा है, जिनसे भीनी महक और हलका-सा आलाक चारा ओर फैल रहा है। स्त्री ने काह-"स्वागत । चल आइए। चमली क कुजा स बने हुए छाया-पथ में स्त्री क पीछे-पीछे चलन लगा। सामन खम्भे पर एक मुन्दर दालान थी जिस पर कोई लता चढ़ी थी। अग्निमित्र वहाँ जाकर ठहर गया । परदा हटा कर स्त्री ने भीतर प्रकाष्ठ में झाक कर देखा, फिर हट गई । अग्नि का उसन भीतर जान का सकेत किया। चक्ति और सशक अग्निमित्र न भीतर जाकर देखा, सुन्दर शैया पर आधी ४३२ प्रसाद वाडमय