पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४९१

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लेटी हुई एक सुन्दरी जिसके रत्नालकारी को प्रभा से आँखे झलमलाने लगी। प्रकोष्ठ बहुत बड़ा था । उसमे स्थान-स्थान पर बहुमूल्य आसन, मच और पुतलियो के दोपाधार थे। भित्ति पर मुन्दर चित्र बने थे। अग्निमित्र पहले तो चकित-सा यही सब देख रहा था; परन्तु जव युवती ने थोडा-सा उठ कर कहा___ "आइए वैठिए !"-तब जैसे उसे सदेह होने लगा कि मैंन यह स्वर कही मुना है, फिर अपना भ्रम समझ कर वह चुप रहा । शिष्टाचारवश आंखे जमाकर उस सुन्दर मुख को देखता भी न था। युवती हंस पडी। जग्निमित्र ने अब कहा- "मुझसे कालिन्दी ने कहा था कि एक विपना स्त्री आपकी सहायता चाहती है। प्रासाद के पूर्वी भाग में रात्रि के पहले प्रहर में जाने से आप उसकी सहायता कर सकेगे। किन्तु यहाँ तो देखता हूँ कि कोई विपन्न नही–तब मुझको ही धोखा दिया गया है क्या ?" सुन्दरी खिलखिला कर हंसने लगी। अग्निमित्र का रोप बढ़ रहा था । उसने कधा कुछ चमकाफर, घूमकर द्वार की ओर जाना चाहा, परन्तु सहसा वही सुन्दरी उठकर उसके कधे पर हाथ रखकर बोली-"जब कही मनुष्य जाता है, तब उसे आतिथ्य-सत्कार ग्रहण. .।" "अरे, यह तुम नही मुझे भ्रम हो रहा है। मुझे छोड दो'–अग्नि ने कहा। "वाह ! यह अच्छी रही। मुनूं भी, आप का भ्रम क्या है ?"-"सुन्दरी ने हाथ पकड़कर शैया पर बिठलाते हुए कहा । "तुम कौन हो?" मे'"समझ लीजिए मैं कालिन्दी हूँ।' "हो हो, समझ क्या लूं । परन्तु इस छल का क्या तात्पर्य ! क्या तुम जो बात यहाँ कह सकती हो, वह गगाधर मन्दिर मे नही कह सकती थी ?" "कालिन्दी में नही हूँ, यह बात वहाँ कैसे विश्वास की जा सकती है ?"कहती हुई वह अग्निमित्र के समीप शैया पर बैठ गई । उसके अंग-अग से लावण्य की ज्योति, यौवन का स्फुलिंग छूट रहा था । मुगध से बसा हुआ उसका उत्तरीय खिसक चला था, जूडे में लगी वमेली की माला महकने लगी थी। हां, मुख के नि श्वासो में कादम्ब की भीनी महक, आँखो मे मादकता के डोरे ! अग्निमित्र ने देखा सचमुच कालिन्दी ही तो है। विकृत वेश मे उसे, उसने मन्दिर में देखा था। उसने आश्चर्य से पूछा--"इस माया का क्या तात्पर्य है ?" ___"मैं दासी हूँ न, आपकी सेवा करने के लिए यह...!" वह कुछ सलज्ज हो रही थी। इरावती:४७३